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भक्तामर स्तोत्र : ५१ तेरे मनोज गुणसे स्तव मालिका ये,
Dथी प्रभो ! विविध वर्ण सुपुष्पवाली । मैंने सक्ति जन कण्ठ धरे इसे जो.
सो ‘मानतुङ्ग' सम प्राप्त करे सुलक्ष्मी ।। ४८ ।। टीका-भो जिनेन्द्र ! इह लोके कश्चन पुमान् जनो । मया भक्त्या तव गुणैर्निबद्धां भवतीर्थंकरगुणरचितां । स्तोत्रस्रजं कण्ठगतां धत्ते धरति । तं मानतुंगं जनं । लक्ष्मीः कमला अवशाद्गतचित्ता सती अजस्त्रं निरंतरं समुपैति प्राप्नोति । मानेन तुंगो महान् मानतुंगस्तं मानतुंगं कवेरभिधानं । स्तोत्रमेव सक् स्तोत्ररक्ताम् । यथा कश्चिदणैः सूत्रनिबद्धां ग्रंथितां सदृशां स्रज कण्ठमालां बिभर्ति तं पुरुषं लक्ष्मी: शोभा समुपैति । कथंभूतां स्तोत्रसजे ? विधिवर्णा एव विचित्राणि नानाविधानि पुष्पाणि यस्यां सा विविधवर्णविचित्रपुष्पा ताम् ।।४८।।
अन्वयार्थ (जिनेन्द्र ! ) हे जिनेन्द्र देव ! (इह) इस संसारमें (यः जनः ; जो मनुष्य ( भया) द्वारा ( भक्त्या ) भक्तिपूर्वक (गुणैः ) प्रसाद माधुर्य ओज आदि गुणों से [ मालाके पक्षमेंडोरेसे] (निबद्धाम् ) रची गई [माला पक्षमें-गूंथी गई ] ( विविधवर्णविचित्रपुष्पाम्) नाना अक्षर ही हैं विचित्र फूल जिसमें ऐसी [ मालापक्षमें-अच्छे रंगवाले कई तरह के फूलोंमे सहित ] (तव) आपकी (स्तोत्रस्रजम् ) स्तुतिरूप माला को (अजस्त्रम् ) हमेशा ( कण्ठगताम् धत्ते ) याद करता है, [ मालापक्षमें-गलेमें पहिनता है ] ( तम्) उस (मानतुङ्गम् ) सम्मानसे उन्नत पुरुष [ अथवा स्तोत्रके रचनेवाले मानुतुंग आचार्य को (लक्ष्मीः ) स्वर्ग मोक्षादिकी विभूति ( अवशा 'सती') स्वतन्त्र होती हुई ( समुपैति ) प्राप्त होती है ।
भावार्थ--हे नाथ ! जो मनुष्य आपके इस स्तोत्रका निरन्तर पाठ करता है, उसेस हर एक तरहकी लक्ष्मी प्राप्त होती है ।।४८।।
श्रीमानतुङ्गाचार्यविरचित भक्तामर स्तोत्र समाप्त