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भक्तामर स्तोत्र : ४९
आपादकण्ठमुरुशृंखलवोष्टताना
गाढं बृहन्निगडकोटिनिघृष्टजधाः। त्वन्नाममंत्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः
सद्यः स्वयं विगतबंधभया भवन्ति ।। ४६।। सारा शरीर जकड़ा दृढ़ साँकलोंसे,
बेड़ी पड़ी छिल गई जिनकी सुजाँधे । त्वन्नाम मंत्र जपते जपते उन्होंने,
जल्दी स्वयं झड़ पड़े सब बन्ध बेड़ी ।। ४६ ।। टीका--भो नाथ ! मनुजा मनुष्या अनिशं निरन्तरं । त्वन्नाममन्त्रं भवदभिधानमन्त्रं । स्मरन्तः सन्तः । सद्यस्तत्कालं विगतबंधभया: प्रणष्टबन्धभया भवति । तव नाम त्वत्राम एव मन्त्रस्त्वन्नाम मन्त्रस्तं । विगतं बन्धभयं येषां ते । कथंभृता मनुजाः ? आपादकण्ठं इति पादकण्ठं आमर्यादीकृत्य उरूणि महांति तानि लोहशृङ्खलानि तैर्वेष्टितमंगं येषां ते । पुनः कथंभूतं ? गाढं यथा स्यात्तथा बृहन्ति महान्ति यानि निगडानि तेषां कोटिभिरग्रभागैर्निघृष्टा जंघा येषां ते ।।४६।।
अन्वयार्थ (आपादकण्ठम् ) पाँव से लेकर कण्ठपर्यन्त ( उरुशृङ्खलवेष्टिताङ्गाः) बड़ी-बड़ी साँकलों से जकड़ा हुआ है शरीर जिनका ऐसे और ( गाढं 'यथा स्यात्तथा) अत्यंत रूप से (बृहन्निगडकोटिनिघृष्टजवाः) बड़ी-बड़ी बेड़ियों के अग्रभाग से घिस गईं हैं जाँघे जिनकी ऐसे ( मनुजाः) मनुष्य ( अनिशम् ) निरन्तर ( त्वन्नामयन्त्रम् ) आपके नाम रूपीमन्त्र को ( स्मरन्तः) स्मरण करते हुए (सद्यः) शीघ्र ही ( स्वयम् ) अपने आप (विगतबन्धभयाः ) बंधन के भय से रहित ( भवन्ति ) हो जाते हैं ।।४६।।
भावार्थ हे भगवन् ! जो निरन्तर आपके नाम का जाप करते हैं, उनके बेड़ी आदि बन्धन अपने आप टूट जाते