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४८ : पंचस्तोत्र
भावार्थ हे भगवन ! जो आपका स्मरण करते हैं, वे तृफान के समय भी समुद्र में निडर होकर यात्रा करते है 11४४।। उद्भूतभीषणजलोदरभारभुग्नाः
शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशाः । त्वत्पादपङ्कजरजोऽमृतदिग्धदेहा
मा भवंति मकरध्वजतुल्यरूपाः ।।४५।। अत्यन्त पीड़ित जलोदर भारसे हैं .
है दुर्दशा तज चुके निज जीविताशा । वे भी लगा तव पदाब्ज-रज; सुधाको ,
होते प्रभो ! मदन-तुल्य स्वरूप देही ।। ४५ ।। टीका-भो देव ! उद्भूतभीषणजलोदरभारभुग्ना मा मनुष्यास्त्वत्पादपंकजरजोऽमृतदिग्धदेहाः सन्तो मकरध्वजतुल्यरूपा भवंति । उद्भूता उत्पन्ना भीषणा भयंकरा जलोदरा नानारोगादयस्तेषां भारस्तेन भुग्नाः । तव पादावेव पंकजे तयो रजस्तदेवामृतं तेन दिग्धो लिप्तो देहा येषां ते । मकरध्वजेन कामेन तुल्यं रूपं येषां ते। कथंभूता माः ? शोच्यां दशामवस्थामुपगताः प्राप्ताः शोचयितुमर्हा शोच्या ताम् । पुनः कथंभूता? च्युता जीवितस्याशा येषां ते ।।४५ ।।
अन्वयार्थ ( उद्धृतभीषणजलोदरभारभुग्नाः) उत्पन्न हुए भयंकर जलोदररोगके भारसे झुके हुए (शोच्याम् दशाम् ) शोचनीय अवस्थाको ( उपगताः) प्राप्त और ( च्युतजीविताशा: ) छोड़ दी है जीवनकी आशा जिन्होंने ऐसे ( माः) मनुष्य ( त्वत्पादपंकजरजोऽमृतदिग्धदेहा: 'सन्तः') आपके चरणकमलोंकी धूलिरूप अमृतसे लिप्त शरीर होते हुए ( मकरध्वजतुल्यरूपाः) कामदेव के रूप के समान रूपवाले (भवन्ति ) हो जाते हैं ।
भावार्थ हे नाथ ! जो आपके चरणों का ध्यान करता है, उसका भयङ्कर जलोदर रोग दूर हो जाता है ।।४५ ।।