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भक्तामर स्तोत्र : ४७
जीतने योग्य शत्रुओं के पक्ष को जिन्होंने ऐसे होते हुए ( जयम् ) विजय को ( लभन्ते ) पाते हैं ।
भावार्थ- हे भगवन् ! जो आपके चरणों का सहारा लेते हैं वे भयङ्कर से भयङ्कर युद्ध में भी निश्चित विजय को पाने हैं ।। ४३ ।।
अम्भोनिधौ
क्षुभितभीषणनक्रचक्र
पाठीनपीठ भयदोल्वणवाडवाग्नौ
रङ्गत्तरङ्गशिखरस्थितयानपात्रा
स्वासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ।। ४४ ।।
है काल नृत्य करते मकरादि जन्तु,
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त्यों वाडवाग्नि अति भीषण सिन्धुमें है।
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तूफानमें पड़ गये जिनके जहाज.
वे भी प्रभो ! स्मरणसे तव पार होते ।। ४४ ।। टीका भो भगवन् ! रंगतरंगशिखरस्थितयान पात्राः प्राणिनः अम्भोनिधौ समुद्रे । भवतस्तव । स्मरणात् स्मरणमात्रात् । त्रासं भयं । विहाय मुक्त्वा । व्रजति इष्टस्थानं यान्तीत्यर्थः रंगन्तः उच्छलन्तः ये तरंगा कल्लोलास्तेषां शिखरऽग्रभागे स्थितानि यानि पात्राणि प्रवहणानि येषां ते । कथंभूतेऽम्भोनिधौ क्षुभिताः क्षोभं प्राप्ता भीषणा भयंकर ये नका दुष्टजलचरजीवास्तेषां चक्राणि यस्मिन् स तस्मिन् पाठीनपीठी मत्स्यभेद - स्तेन भयदो महाभयप्रदायो उल्वणो वाडवाग्निर्यस्मिन् स तस्मिन् ॥४४
अन्वयार्थ - ( क्षुभितभीषणनक्रचक्रपाठीनपीठभयदोल्वurarsarग्नौ ) क्षोभको प्राप्त हुए भयंकर नाकुओं ( मगरों ) के समूह और मछलियों के द्वारा भय पैदा करने वाले तथा विकराल asara जिसमें ऐसे (अम्भोनिधी ) समुद्रमें (रङ्गत्तरङ्गशिखरस्थितयानपात्रा : ) चंचल लहरों के अग्र भाग पर स्थित है जहाज जिनका ऐसे मनुष्य ( भवतः ) आपके ( स्मरणात् ) स्मरणसे ( त्रासम् ) डर (विहाय ) छोड़कर ( व्रजन्ति) गमन करते हैंयात्रा करते हैं ।