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________________ ४२ : पंचस्तोत्र झरते हुए मद-जल से मलिन और चञ्चल गालोंके मूल भागमें पागल हो घूमते हुए भौरों के शब्दसे बढ़ गया है क्रोध जिसका ऐसे ( ऐरावताभम् ) ऐरावत की तरह (उद्धतम् ) उद्दण्ड (आपतन्तम् ) सामने आते हुए (इभम् ) हाथीको (दृष्टवा ) देखकर ( भयम् ) डर ( नो भवति ) नहीं होता । भावार्थ - हे प्रभो ! जो मनुष्य आपकी शरण लेते हैं, उन्हें मदोन्मत्त हाथी भी नहीं डरा सकता ।। ३८।। भिन्नेभकुम्भगलदुज्ज्वलशोणिताक्त मुक्ताफलप्रकर भूषितभूमिभागः बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ।। ३९ ।। नाना करीन्टल कुम्भ विहार की, पृथ्वी सुरम्य जिसने गजमोतियोंसे । ऐसा मृगेन्द्र तक चोट करे न उस्पै, 11 तेरे पदाद्रि जिसका शुभ आसरा है ।। ३९ ।। टीका- - भो भगवन् ! हरिणाधिपोऽपि तव विभो क्रमयुगाचलसंश्रितं प्राणिनं नाक्रामति न पीडयति । क्रमयोर्युगं क्रमयुगं क्रमयुगमेवाचलः पर्वतस्त्रं संश्रितस्तं । हरिणानामधिपः । कथंभूतः हरिणाधिपः ? भिन्ना विदारिता ये इभाः हस्तिनस्तेषां कुंभा: कुम्भस्थलानि तेभ्यो गलंति उज्ज्वलानि शोणितेन रुधिरेण आक्तानि लिप्तानि यानि मुक्ताफलानि तेषां प्रकर: समूहस्तेन भूषितोऽलंकारितो भूमेर्भागः प्रदेशो येन सः । पुनः कथंभूतः ! बद्धः क्रमः फाल इति येन स । कथंभूतं प्राणिनं ? क्रमं फालं गतः प्राप्तस्तं । सिंहस्य फालः क्रमः इति कथ्यते ||३९|| अन्वयार्थ -- ( भिभकुम्भगलदुज्ज्वलशोणिताक्तमुक्ताफलप्रकरभूषितभूमिभागः ) विदारे हुए हाथी के गण्डस्थलसे गिरते हुए उज्ज्वल तथा खूनसे भीगे हुए मोतियोंके समूहके द्वारा भूषित किया है पृथिवीका भाग जिसने ऐसा तथा ( बद्धक्रमः )
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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