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भक्तामर स्तोत्र : ४१ (परस्य) किसी दूसरेकी (न 'अभूत्') नहीं हुई थी। (प्रहतान्धकारा ) अन्धकारको नष्ट करनेवाली (यादा ) जैसी (प्रभा) कान्ति (दिनकृतः) सूर्यकी ('भवति') होती है, (तादृक् ) सी (विकाशितः अपि प्रकाशमान भी ( ग्रहगणस्य ) अन्य ग्रहोंकी (कुतः) कहाँसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती।
भावार्थ हे प्रभो ! धर्मोपदेशके विषयमें समवसरणादिरूप जैसी विभूति आपको प्राप्त हुई थी, वैसी विभूति अन्य देवताओंको प्राप्त नहीं हुई थी । सो ठीक ही है, क्या कभी सूर्य जैसी कान्ति शुक्र आदि ग्रहों से भी प्राप्त हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती है ।।३७।। श्च्योतन्मदाविलविलोलकपोलमूल
मत्तभ्रमभ्रमरनादविवृद्धकोपम् । ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं
दृष्ट्वाभयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ।। ३८।। दोनों कपोल झरते मदसे सने हैं,
गुंजार खूब करती मधुपावली है। ऐसा प्रमत्त गज होकर क्रुद्ध आवे,
पावें न किन्तु भय आश्रित लोक तेरे ।। ३८ ।। टीका–भो नाथ ! भवदाश्रितानां पुंसां । ऐरावताभं पराक्रमेण ऐरावततुल्यं । उत्कटं उद्धतमापतन्तं सन्मुखमागच्छन्तमि हस्तिनं । दृष्ट्वा विलोक्य । भयं नो भवति । भवन्तमाश्रिता भवदाश्रित्तस्तेषां । कथंभूतमिमं? श्चयोतन्तः क्षरन्तो ये मदास्तैराविलो कलुषीभूतौ विलालौ यो कपालो तयोर्मूले मत्ता भ्रमन्तश्चौ ये भ्रमरास्तेषां नाद शब्दस्तेन विवृद्ध: कोपो यस्य स तम् ।।३८।।
__ अन्वयार्थ ( भवदाश्रितानाम् ) आपके आश्रित मनुष्यों को (श्च्योतन्मदाविलविलोलकपोलमूलमत्तभ्रमभ्रमरनादविवृद्धकोपम् )