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४० : पंचस्तोत्र
अन्वयार्थ (जिनेन्द्र) हे जिनेन्द्रदेव ! ( उन्निद्रहेमनवपङ्कजपुञ्जकान्तिपर्युल्लसन्नखमयूखशिखाभिरामौ) फूले हुए सुवर्णके नबीन कपल समूहके समान कान्तिके द्वारा सब ओरसे शोभायमान नखों की किरणोंके अग्र भागसे सुन्दर (तव ) आपके ( पादौ ) चरण ( यत्र ) जहाँ ( पदानि) कदम (धत्तः) रखते हैं (तत्र) वहाँ (विबुधाः ) देव ( पद्यानि ) कमल ( परिकल्पयन्ति) रच देते हैं।
__ भावार्थ हे जिनेन्द्र ! जब आप धर्मोपदेश देनेके लिये आर्य क्षेत्रों में विहार करते हैं, तब देवलोग आपके चरणों के नीचे कमला की रचना करते जाते हैं ।।३६।। इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र !
धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य । यादृक्प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा
तादृक्कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ।।३७।। तेरी विभूति इस भौति विभो ! हुई जो,
सो धर्मके कथनमें न हुई किसीकी । होते प्रकाशित परन्तु तमिस्र-हर्ता,
होता न तेज रवि तुल्य कहीं ग्रहोंका? ।। ३७ ।। टीका-भो जिनेन्द्र ! इत्थं पूर्वोक्तप्रकारेण । यथा धर्मोपदेशनविधौ । तव तीर्थंकरस्य । विभूतिरभूत् बभूव । तथा परस्य हरिहरादिषु विभूति भूत् । धर्मस्योपदेशनं धर्मोपदेशनं तस्य विधिस्तस्मिन् । एतद्यु क्तमवे दिनकृतः सूर्यस्य प्रभा दीप्तिर्यादृगभूत् । विकाशिनोऽपि प्रकटीभूतस्यापि ग्रहगणस्य तादृक् प्रभा कुत एव । कथंभूता सूर्यप्रभा? प्रहतानि निराकृतानि अन्धकाराणि यस्यां सा ।।३७।।
अन्वयार्थ—( जिनेन्द्र ! ) हे जिनदेव ! (इत्थं) इस प्रकार (धर्मोपदेशनविधौ) धर्मोपदेशके कार्यमें (यथा) जैसी (तव ) आपकी ( विभूतिः) विभूति ( अभूत्) हुई थी, (तथा ) वैसी