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________________ भक्तामर स्तोत्र : ३९ अन्वयार्थ (ते) आपकी (दिव्यध्वनिः) दिव्यध्वनि (स्वर्गापवर्गगममार्गविमार्गणेष्टः) स्वर्ग और मोक्षको जानेवाले मार्गके खोजनेके लिये इष्ट (त्रिलोम्या. ) तीनों लोकके जीवोंको (सद्धर्मतत्त्व कथनकपुटः ) समीचीन धर्मतत्व के कथन करने में अत्यन्त समर्थ और ( विशदार्थसर्वभाषास्वभावपरिणामगुणैः प्रयोज्यः ) स्पष्ट अर्थवाली सम्पूर्ण भाषाओं में परिवर्तित होनेवाले स्वाभाविक गुण से सहित ( भवति ) होती है । भावार्थ हे स्वामिन् ! आपकी वाणी स्वर्ग और मोक्षका रास्ता बतानेवाली है, सब जीवोंको हितका उपदेश देने में समर्थ है, और सब भाषाओंमें बदल जाती है, अर्थात् जो जिस भाषाका जानकार है, आपकी दिव्यध्वनि उसके कानोंके पास पहुंचकर उसी रूप हो जाती हैं। यह दिव्यध्वनि प्रातिहार्यका वर्णन है ।।३५।। उन्निद्रहमनवपङ्कजपुञ्जकान्ति पर्युल्लसत्रखमयूखशिखाभिरामौ । पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र धत्तः __ पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ।। ३६।। फूले हुए कनकके नव पाके से शोभायमान नखकी किरण-प्रभासे.. तूने जहाँ पग धरे अपने विभो ! हैं. नोके वहाँ विबुध पंकज कल्पते हैं ।। ३६ ।। टीका– भो जिनेन्द्र ! यत्र स्थाने । तब भगवतः । पादौ पदानि । धत्तः धरतः । तत्र स्थाने । विबुधाः देवाः । पद्यानि कमलानि । परिकल्पयन्ति रचयन्तीत्यर्थः । कथंभूतौ पादौ ? उन्निद्राणि विकसितानि यानि हेम्न: सुवर्णस्य नवपंकजानि कमलानि तेषां पुंजः समृहस्तस्य कान्तिस्तया कृत्वा परिसन्मततः उल्लसन्तोः ये नखास्तेषां किरणास्तेषां शिखाग्रभागस्ताभिरभिरामौ मनोज्ञावित्यर्थ: 11३६।।
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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