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भक्तामर स्तोत्र : ३५ अन्वयार्थ---( शशाङ्ककान्तम्) चन्द्रमा के समान सुन्दर ( स्थगितभानुकरप्रतापम् ) सूर्य की किरणों के संतापको रोकनेवाले तथा ( मुक्ताफलप्रकरजालविवृद्धशोभम्) मोतियोंके समूहोंसे बढ़ती हुई शोभा को धारण करनेवाले ( तव उच्चैः स्थितम् ) आपके ऊपर स्थित (छत्रत्रयम् ) तीन छत्र (त्रिजगतः) तीन जगत्के ( परमेश्वरत्वम् ) स्वामित्व को ( प्रख्यापयत 'इव') प्रकट करते हुएकी तरह (विभाति ) शोभायमान होते हैं ।
भावार्थ-भगवन् ! आपके शिरपर जो तीन छन फिर रहे हैं; ने नो सह प्रकट कर रहे हैं कि गाय हीन लोक के स्वामी हैं । यह छात्रय प्रतिहार्य का वर्णन है ।।३१।।
गम्भीरताररवपरितदिग्विभाग
स्त्रैलोक्यलोकशुभसंगमभूतिदक्षः । सद्धर्मराजजयघोषणघोषक: सन्,
खे दुंदुभियनति ते यशसः प्रवादी ।। ३२।। गम्भीर नाद भरता दश ही दिशा में,
सत्संग की त्रिजगको महिमा बताता । धर्मेशकी कर रहा जय-घोषणा है,
आकाश बीच बजता यशका नगारा ।। ३२ ।। टीका-खे आकाशे ! ते तव तीर्थंकरस्य । दुन्दुभिः पटहः । ध्वनति शब्दायते । कथंभूतं दुन्दुभिः ? गम्भीरोऽगाधस्तार उच्चस्तरो यो रव; शब्दस्तेन पूरिता दिग्विभाग येन सः । पुनः कथंभूतं? त्रैलोक्यस्य लोका इन्द्रधरणेन्द्रचक्रवत्यादयस्तेषां शुभस्य संगमः प्राप्तिस्तम्यभूतिर्भवनं तत्र दक्षो निपुण इत्यर्थः । पुनः कथं? सत्समीचीनो यो धर्मराजस्तस्य जयघोषणं जयपटह घोषयति कथयतीति सद्धर्मराजजयघोषणघोषकः । अथवा सन् विद्यमानो धर्मराजो यमस्तस्य जयस्तस्य घोषणं घोषयतीति, पुनः कथं? सन् उत्तमः । पुनः कथंभूतं? यशसः प्रवादी । प्रकर्षेण वदत्येवं शील: प्रवादी ।।३२।।