________________
भक्तामर स्तोत्र : ३१ अन्य स्थान की कमी नहीं थी, इसलिये वे स्वप्न में भी आपक पास नहीं आये। व्यवहार में भी देखा जाता है, कि जिसका अन्यत्र सम्मान नहीं होता है, वह विवश हो किसी एक के पास ही रहता है, पर जिसका हर जगह सम्मान होता है, वह किसी एक के आश्रित नहीं रहता । श्लोक का तात्पर्य इतना ही है कि आप मुणवान् हैं, आपमें दोष बिल्कुल ही नहीं हैं ।।२७।। उच्चैरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूख
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्। स्पष्टोल्लसत्किरणमस्ततमोवितानं
बिम्बं रवेरिव पयोधरपार्श्ववर्ति ।। २८।। नीचे अशोक तरु के तन है सुहाता,
तेरा विभो ! विमलरूप प्रकाशकर्ता । फैली हुई किरण का तमका विनाशी.
मानो समीप घन के रवि-बिम्ब ही हैं ।। २८ ।। टीका-भो नाथ ! भगवतस्तव परमेश्वरस्य । अमलं रूपं जगन्मोहनसौन्दर्यं । उच्चैरशोकतरुसंश्रितं प्रथमप्रातिहार्याशोकवृक्षाश्रितं । स तु नितान्तं निरन्तरमाभाति राजतीत्यर्थः । उच्चैश्चासावशोकतरुश्चोच्चैरशोकतरुस्तं संश्रितं रूपं ! कथंभूतं रूपं ? उन्मयूखं उत ऊर्ध्वं निःसरन्तो मयूखाः किरणा यस्मात्तत् । कस्य किमिव रवेर्बिम्बमिव । यथा रवेः सूर्यस्य बिम्बं पयोधरपार्श्ववर्ति । कथं ? रवेबिम्बं स्पष्टं प्रकटं यथा स्यात्तथा । उल्लसन्तः विस्फुरन्तः किरणा यस्य तत् । पुनः कथं ? अस्तं निराकृतं तमसां पापानां वितानं समूहो येन तत्।।२८।।
अन्वयार्थ—(उच्चैरशोकतरुसंश्रितम्) ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे स्थित तथा ( उन्मयूखम् ) जिसकी किरणें ऊपर को फैल रही हैं, ऐसा ( भवतः) आपका ( अमलम् ) उज्ज्वल { रूपम्) रूप (स्पष्टोल्लसत्किरणम्) स्पष्ट रूप से शोभायमान हैं किरणे