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पंचस्तोत्र
को विस्मियोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषस्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश ! दोषैरुपात्तविविधाश्रयजातगर्वै,
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ।। २७ ।।
आश्चर्य क्या गुण सभी तुझमें समाये,
अन्यत्र क्योंकि न मिली उनको जगा हो । देखा न नाथ ! मुख भी तब स्वप्न में भी.
या आसरा जगत का सोने के
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टीका - मुनीनां प्रत्यक्षज्ञानिनामीशः । तस्यामंत्रणे । भो मुनीश ! अत्र जगन्मण्डले । को विस्मयः किमाश्चर्यम् । यदि चेत् नामेति सत्यं । अशेषैः समग्रैर्गुणैः। निरवकाशतया अनवकाशतया अवकाशरहितत्वेन । त्वं भगवान् संश्रितः । अवकाशान्निष्कान्तो निरवकाशस्तस्य भावस्तत्ता तया । भो नाथ ! दोषैरष्टादशदोषैः । स्वप्नान्तरेऽपि स्वप्नमध्येऽपि । त्वं कदाचिदपि नेक्षितोऽसि न दृष्टोऽसि । अत्रापि को विस्मयः ? कथंभूतैर्दोषैः ? उपात्ताः आदृताश्च ते विविधा अनेकाश्रयाश्च तैः कृत्वा जाता उत्पन्नो गर्वोऽभिमानी येषां ते तैः ।। २७ ।।
अन्वयार्थ - (मुनीश) हे मुनियों के स्वामी ! (यदि नाम ) यदि (निरवकाशतया ) अन्य जगह स्थान न मिलने के कारण (त्वम् ) आप ( अशेषै: ) समस्त ( गुणैः) गुणों के द्वारा ( संश्रित: ) आश्रित हुए हो और ( उपात्तविविधाश्रयजातगर्वैः ) प्राप्त हुए अनेक आधार से उत्पन्न हुआ है, अहंकार जिनको ऐसे ( दोषैः ) दोषों के द्वारा ( स्वप्नान्तरे अपि ) स्वप्न के मध्य में भी ( कदाचित् अपि) कभी भी ( न ईक्षितः असि ) नहीं देखे गये हो ( तर्हि ) तो ( अत्र ) इस विषय में ( कः विस्मयः ) क्या आश्चर्य है ? कुछ नहीं ।
भावार्थ- गुणों को संसार में अन्य स्थान नहीं मिला, इसलिये वे विवश हो आपकी शरण में आ गये। परन्तु दोषों को