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२८ : पंचस्तोत्र शङ्करदेवोऽसीत्यर्थः । कस्मात् भुवनत्रयाणां शं सुखं करोतीति भुवनत्रयशंकरस्तस्य भावस्तस्मात्। हे धीर ! त्वमेव धाताऽसि । कस्मात् . शिवस्य मोक्षस्य मार्गः पन्थास्तस्य विधि: आचारस्तस्य विधानात करणत्वात् । भो 11 ! व्यः स मा हमारा मात्र पुरुषोत्तमोऽसि 1 त्रिषष्टिपुरुषाणां मध्ये उत्तमः पुरुषोत्तमस्तीर्थकरः साक्षान्मोक्षांगत्वात् ।।२५।। ___ अन्वयार्थ (विबुधार्चितबुद्धिबोधात् ) देव अथवा विद्वानों के द्वारा पूजित बुद्धि-ज्ञान वाले होने से ( त्वम् एव ) आप ही ( बुद्धः ) बुद्ध हैं । ( भुवनत्रयशङ्करत्वात् ) तीनों लोकों में शान्ति करने के कारण ( त्वम् एव) आप ही ( शङ्करः असि ) शङ्कर हैं। (धीर) हे धीर ! (शिवमार्गविधेः) मोक्षमार्ग की विधि के (विधानात् ) करने से ( त्वम् एव ) आप ही ( धाता) ब्रह्मा है, और (भगवन्) हे स्वामिन ! (त्वम् एव ) आप ही ( व्यक्तम्) स्पष्ट रूप से ( पुरुषोत्तमः असि ) मनुष्यों में उत्तम अथवा नारायण हैं ।
भावार्थ—संसार में बुद्ध, शंकर, ब्रह्मा और नारायण नाम में प्रसिद्ध अन्य देव हैं । आचार्य कहते हैं कि हे भगवन् ! केवलज्ञानसहित होने के कारण आप ही सच्चे 'बुद्ध' हैं। किन्तु जो सर्वथा क्षणिकवादी अथवा केवलज्ञान से रहित हैं, वह बुद्ध नहीं कहला सकते । तीनों लोकों के सुख या शांति के करने से आप ही सच्चे 'शङ्कर' हैं । जो संसार का संहार करने वाले हैं और काम से पीड़ित होकर पार्वती को हमेशा साथ रखते हैं, वह शंकर नहीं हो सकते । आपने ही रत्नत्रयरूप धर्म का उपदेश देकर मोक्षमार्ग की सृष्टि की है । इसलिये आप ही सच्चे 'ब्रह्मा' हैं । जो हिंसक वेदों का उपदेश देते और तिलोत्तमा के मोह में फँस तप से भ्रष्ट हुए, वह ब्रह्मा नहीं कहे जा सकते । इसी तरह पुरुषोत्तमकृष्णनारायण भी तुम्ही हो, क्योंकि आप सब पुरुषों में उनमश्रेष्ठ हो ।।२५।।