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________________ भक्तामा स्तोत्र : २७ कहते हैं। आपके गुणों की संख्या नहीं है, इसलिये आपको 'असंख्य'-गणना रहित कहते हैं । आप युग के आदि में हुए अथवा चौबीस तीर्थंकरों में आदि हैं, इसलिये आपको 'आद्य'प्रथम कहते हैं। आप सब कर्मों से रहित हैं, अथवा अनन्त गुणों से बढ़े हुए है, इसीलिये आपको 'ब्रह्मा' कहते हैं । आप कृतकृत्य हैं, इसीलिये आपको 'ईश्वर' कहते हैं । आप सामान्य स्वरूप की अपेक्षा अन्त रहित हैं, इसीलिये आपको 'अनन्त' कहते हैं । आप काम को नष्ट करने के लिये अग्नि की तरह हैं, इसीलिये आपको 'अनंगकेतु' कहते हैं। आप मुनियों-योगियों के स्वामी हैं, इसलिये आपको 'योगीश्वर' कहते हैं । आप योग-ध्यान वगैरह को जानने वाले हैं, इसलिये आपको 'विदितयोग' कहते हैं। आप पर्यायों की अपेक्षा अनेक रूप हैं, इसलिये आपको 'अनेक' कहते हैं । आप सामान्य स्वरूप की अपेक्षा एक हैं, इसलिये आपको 'एक' कहते हैं। आप केवल ज्ञानरूप हैं, इसलिये आपको 'ज्ञानस्वरूप' कहते हैं, तथा आप कर्ममल से रहित हैं, इसलिये आपको अमल' कहते हैं ।।२४।। बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधा त्वं शङ्करोऽसि भुवनत्रयशङ्करत्वात् । धातासि धीर ! शिवमार्गविधेर्विधानाद, व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ।।२५।। तू बुद्ध है विबुधपूजित- बुद्धिवाला, कल्याण-कर्तृवर शंकर भी तुही हैं। तू मोक्षमार्ग विधि-कारक है विधाता, है व्यक्त नाथ पुरुषोत्तम भी तुही है।। २५ ।। टीका-भो भगवन् ! त्वमेव बुद्धोऽसि बुद्धदेवोऽसीत्यर्थः । कुतः ? विबुधार्चितबुद्धिबोधात् । विबुधैर्दैवेरर्चितः पूजितः । बुद्धेबोधः प्रतिबोधी यस्य स तस्मात् । भो नाथ ! त्वं शङ्करोऽसि । त्वमेव
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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