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श्री सरस्वती स्तोत्र : २६९
समुद्र वा तुषार के सम हार शोभे कंठ में, पूनम के चन्दा सम जो शोभे अंग-अंग प्रत्यंग में । बाल मृग सम लघु अरु चञ्चला नित कान्ति में. aritraft रक्षा करो नित दिव्यमूर्ति प्राप्त है ॥ ७ ॥ अर्थ- समुद्र के फेन अथवा बर्फ के समान सफेद हार जिनके कण्ठ में हैं, जिनका शरीर पूर्णिमा के चन्द्रबिम्ब के समान अत्यन्त सुशोभित हैं तथा जिनके नेत्र - कमल मृग के छोटे-छोटे बच्चों के समान चञ्चल है, ऐसी हे सरस्वती देवी ! तुम हमारी प्रतिदिन रक्षा करें ।।७।।
भावार्थ- जो सप्ततत्त्व रूप श्वेत निर्मल मणिमय कण्ठहार धारण किये हुए हैं तथा नव पदार्थ के पूर्ण ज्ञान से जिनका शरीर पूर्णिमा के चन्द्र के समान सुशोभित हो रहा है अथवा धवलमहाधवल रूप महाग्रन्थों की शोभा से जिनका शरीर पूर्ण चन्द्रमा के समान धवल कीर्ति को प्राप्त है तथा जिनके व्यवहार-निश्चय रूप दो सुन्दर नेत्र प्रतिपल मार्गदर्शन देने से चपलता युक्त हो सुन्दर दिख रहे हैं ऐसी माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें। पूज्ये पवित्रकरणोन्नत कामरूपे,
नित्यं फणीन्द्र गरुडाधिप किन्नरेन्द्रैः । विद्याधरेन्द्र सुरयक्ष समस्त वृन्दैः,
वागीश्वर प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ||८|| करती हैं पावन भविजनों को उन्नत जो काम स्वरूप है, है वन्दनीय गरुड़ नाग, नरेन्द्र विद्याराज से । देवेन्द्र यक्षादिक जनों से, पूज्य सबकी वन्द्य है, वागीश्वरि रक्षा करो नित दिव्यमूर्ति प्राप्त है ॥ ८ ॥
अर्थ- जो सभी को पवित्र करने वाली, उन्नत काम स्वरूप है, जो नागराज, गरुड़राज, किन्नरेन्द्र, विद्याधरराज, देवेन्द्र, यक्ष आदि समस्त देवों के समुदाय से सदा पूजनीय है ऐसी हे सरस्वती देवी! तुम सदा हमारी रक्षा करो ।