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________________ अकलंक स्तोत्र : २६३ शास्त्रार्थ करती रही तथापि (भट्टाकलंक प्रभोः) भगवान् भट्टाकलंक स्वामी के ( वाक्कल्लोपरम्पराभिः ) युक्ति-युक्त तार्किक वचन रूप महातरंगों की परम्परा से ( सन्ताडिता) पराजय को प्राप्त हुई अत: ( जायसारकाम । अज़ानियों की गणना को ( अगमत् ) प्राप्त हुई। अपनी पराजय से लज्जित हो ( विस्मितमतिः) आश्चर्यान्वित हो ( नूनम् ) निश्चय मे शर्मिन्दा हुई के समान ( अपते ) मिथ्या वस्तु स्वरूप के प्रतिपादक बौद्धों के एकान्तमत में ही ( इतस्तत:) इधर-उधर ( मनो मज्जनं ) मन को स्थिर करने की कठिनाइयों को (सहते स्म ) सहने लगी { एवम् ) ऐसा ( वयम्) हम ( मन्यामहे ) मानते हैं। भावार्थ—ऐतिहासिक घटना के अनुसार-अपने आप को सर्वोपरि ज्ञानवाली, भगवती सरस्वती मानने वाली तारा देवी ने भट्टाकलंक देव दिगम्बर साधु से छह माह तक शास्त्रार्थ किया । किन्तु आचार्यश्री की वाद विद्या, पैनी दृष्टि व युक्तियुक्त तार्किक वाणी रूपी तरंगों के सामने वह नहीं टिक पाई, पजित हो गई और सत्यार्थ तत्त्वज्ञान से अपरिचित अज्ञानियों की गणना को प्राप्त हुई। तारा देवी अपनी पराजय से लज्जित हो आश्चर्यचकित रह गई। अब लज्जित हो मिथ्या एकान्तमत क्षणिकवाद के प्रतिपादक बौद्धों के मत में ही इधर-उधर अपने मन को कठिनता से स्थिर कर कठिनाइयों को सहने लगी ऐसा हम मानते हैं।
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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