SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६२ : पंचस्तोत्र निहितः ) जनता को उत्तम श्रेष्ठ जिन-धर्म में लगाया ( सः ) वह (अकलंक) मिथ्यात्वादि कलंक से रहित अकलंक (जिनः) मिथ्यात्व विजेता ( देवः) अकलंक देव (यः) जो ( भगवान) तत्त्वज्ञान वेत्ता हैं (अमेयमहिमा) अतुल रत्नत्रय की गरिमा से माहात्म्यवान हैं ( किम् ) क्या ( वाद्यः) शास्त्रार्थ करने योग्य हैं अर्थात् नहीं। भावार्थ-भट्टाकलंकदेव की विशाल बुद्धि व तार्किक शक्ति थी। उनका विशाल ज्ञान समुद्र अपरिमित प्रमेय से व्याप्त था उनको अपूर्व तत्त्वज्ञान शक्ति युक्त भगवती सरस्वती देवी तारा देवी के मस्तक को हिलाकर पञ्चमकाल में जिनधर्म की अपूर्व प्रभावना की है जिन्होंने कलिकाल में मिथ्याभिमान से चूर मित्तियों का मद दूर कर जनता को उत्तम जैनधर्म में लगाया, जो मिथ्यात्व के कलंक से दूर अकलंक थे ऐसे असीम ज्ञानधारा के पुञ्ज यथार्थ तत्त्ववेत्ता के साथ कौन वाद करेगा अर्थात कोई नहीं । अमेय महिमा अर्थात् रत्नत्रय के धनी चारित्र के शिखर को प्राप्त क्या अकलंकदेव सामान्य जीवों के बाद शास्त्रार्थ करने के योग्य हो सकते हैं कभी नहीं । अर्थात् ऐसे तार्किक, लोकोत्तर ज्ञानी के साथ कौन अल्पज्ञानी वाद करने की हिम्मत करेगा अर्थात् कोई नहीं। सा तारा खलु देवता भगवतीमन्यापि मन्यामहे षण्मासावधि जाड्य सांख्यमगमद्भट्टाकलंक प्रभोः । वाक्कल्लोलपरम्पराभिरमते नूनं मनो मज्जनं व्यापार सहते स्म विस्मित मतिः सन्ताडितेतस्ततः ।।१६।। अन्वयार्थ (भगवतीमन्यापि) अपने को भगवती श्रेष्ठज्ञानयुक्त मानने वाली (सा) वह (तारा) तारा नाम की (देवता) देवी ( खलु) निश्चय से ऐतिहासिक घटना के अनुसार भगवान् श्री भट्टाकलंक के साथ (षण्मासावधि) छह मास तक निरन्तर
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy