________________
श्री सरस्वती स्तोत्रम्
चन्द्रार्ककोटि घटितांज्जवल दिव्यमूतें,
श्री चन्द्रिका कलित निर्मल शुभ्रवस्त्रे । कामार्थदायि कलहंस समाधि रूठे,
वागीश्वरि प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ।। १ ।। कोटि सूर्य अरु चन्द्रमा की कान्ति से भी तेज है, चन्द्रमा की किरण सम सब वस्त्र जिसके श्वेत हैं। कामना सब पूर्ण करती हंस पर आरूढ़ है, वागीश्वरि रक्षा करो नित दिव्यमूर्ति प्राप्त है ॥ १ ॥
अर्थ-करोड़ों सूर्य और चन्द्रमा के एकत्रित तेज से भी अधिक तेज धारण करनेवाली, चन्द्रकिरणसमान अत्यन्त स्वच्छ श्वेत वस्त्रों को धारण करनेवाली, सकल मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली तथा कलहंस पक्षी पर आरूढ़ दिव्यमूर्ति श्री सरस्वती देवी ! हमारी प्रतिदिन रक्षा करें ।
I
भावार्थ – यहाँ सरस्वती देवी से कवि का अभिप्राय जिनवाणी से है । जो जिनवाणी माता तीर्थंकर के मुख से निर्गत है, गणधरों द्वारा झेली गई है तथा मुनियों के द्वारा प्रसारित की गई है । कोटि सूर्य चन्द्र की कांति को जीतने से यहाँ तात्पर्य है जिन अर्हन्त केवली के मुख से यह निर्गत है कि उनकी कांति कोटिसूर्य चन्द्र की कांति को भी लज्जित करती थी तथा जो द्वादशांग श्रुत की तेजकान्ति से करोड़ों सूर्य चन्द्र की कांति को निस्तेज करने वाली है । जो इस माँ जिनवाणी को हृदय में धारण करता है वह अज्ञान अन्धकार को नाशकर करोड़ों सूर्य चन्द्रमा की कान्ति को भी फीका करने वाले तेज को प्राप्त होता है । माँ जिनवाणी का वस्त्र कौन सा है ? समीचीन ज्ञानरूप उज्जवल सफेद वस्त्र माँ