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________________ अकलंक स्तोत्र : २५९ अन्वयार्थ--(मया ) मुझ अकलंक ने ( अहङ्काग्वशीकृतेन) मान के वश में किये गये ( मनसा ) मन से ( न ) नहीं । ( द्वेषिणा) द्वेष से भरे हुए (मनसा) मन से ( न ) नहीं ( अपितु ) ( केवलम्) सिर्फ/मात्र (नैरात्म्यं ) आत्मा के शून्यत्व को (प्रतिपद्य ) जानकर/स्वीकार करके ( जने ) लोगों के ( नश्यति ) मोक्षमार्ग से भ्रष्ट होने पर ( कारुण्य बुद्ध्या ) करुणामय बुद्धि से ही ( राजः) राजा ( श्रीहिमशीतलस्य) श्री हिमशीतल को ( सदसि ) सभा में (सकलान् ) सभी (विदग्धात्मनः) गर्वीले मूढ़ आत्माओं को ( बौद्धोधान्) बौद्ध भक्तों को ( विजित्य) जीत करके (सः ) उस (घट:) घड़े को (पादेन ) पैर से (विस्फालितः) फोड़ दिया। भावार्थ-राजा हिमशीतल की सभा में अकलंकदेव का बौद्धों के साथ बहुत लम्बे समय तक विवाद चलता रहा । अकलंकदेव की तार्किक विद्या के सामने सभी बौद्ध विवाद में असफल रहे । तब उन्होंन मायाजाल रचा । तारादेवी को घट में स्थापित कर दिया और परदे की ओट में विवाद शुरू हुआ। तारादेवी के साथ ६ माह तक अकलंकदेव का वाद चलता रहा । एक दिन अचानक आचार्यदेव के मस्तिष्क में सत्यार्थ का प्रकाशन हुआ । उन्होंने सोचा इन बौद्धों में ऐसा कोई विद्वान् नजर नहीं आता जो मुझ स्याद्वादी के सामने ६ माह तक टिक सके । अवश्य यह कोई मायाजाल है। उन्होंने पर्दे को हटाया । वहाँ देखा वाद करने वाला कोई व्यक्ति वहाँ नहीं था । तुरन्त वे समझ गये ये सब देवमाया है । उन्होंने तुरन्त ही उस घड़े को अपने पैर से फोड़ दिया । तारादेवी उसमें से तुरन्त भाग निकली । इसी घटना का चित्रण करते हुए अकलंकदेव लिखते हैं मुझ अकलंक ने. सर्वथा आत्मा के अभाव की बात करने वाले, शून्यवाद का ढोंग रचाकर, मोक्षमार्ग से पतित होने वाले लोगों को अनन्त संसार परिभ्रमण से बचाने के लिये करुणाबुद्धि से अहंकार में मदमाते क्षणिकवादियों, समस्त बौद्धों के भक्तों को
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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