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अकलंक स्तोत्र : ०५३
३. लौकिक विष्णु जिन्हें श्रीकृष्ण के नाम से पुकारते हैं, त्रिखण्ड का राजा होते हुए भी ग्वालों की पुत्रियों में लम्पट हुआ परस्त्री लम्पटी हो रहा है। __इन ब्रह्मा-शंकर और विष्णु में पूर्ण वीतरागी, निर्भय सकल भयों को जीतने वाला वीतरागी-सर्वज्ञ-हितोपदेशी कहलाने योग्य, घातिया कर्मों का क्षय करने वाला कोई भी नजर नहीं आता । सब संसार की उलझन में फंसे राग-द्वेष आदि दोषों से युक्त हैं अरहन्त कहलाने योग्य कोई नहीं है । मुझ अकलंक का ब्रह्म-अरिहन्त हैं, शम्भु-अरहन्त हैं तथा विष्णु भी अरिहन्त ही हैं अन्य कोई नहीं ।। ७ ।। एको नृत्यति विप्रसार्य ककुभां चक्रेसहस्त्रंभुजा नेकः शेष भुजङ्ग भोगशयने व्यादाय निद्रायते । दृष्टुं चारु तिलोत्तमामुखमगादेकश्चतुर्वक्त्रतामेतेमुक्तिपथं वदन्ति विदुषामित्येतदत्यद्भुतम् ।। ८ ।।
अन्वयार्थ (एकः) शिवजी (ककुभाम् ) दिशाओं के ( चक्रे ) चक्र-मण्डल में (सहस्रं ) हजारों ( भुजान्) भुजाओं को (विप्रसार्य) फैलाकर ( नृत्यति ) नृत्य करते हैं। (एक;) विष्णुजी (शेषभुजङ्गभोगशयने ) शेषनाग के शरीररूप शय्या पर ( व्यादाय) मुख को खोलकर (निद्रायते ) सोते हैं (एक:) श्रीब्रह्माजी ( चारुतिलोत्तमा मुखम् ) सुन्दर तिलोत्तमा के मुख को ( दृष्टम्) देखने के लिये ( चतुर्वक्त्रताम् ) चार मुखपना को ( अगात्) प्राप्त हुए ( एते ) ये शिव, विष्णु और ब्रह्मा (विदुषाम् ) विद्वानों को (मुक्तिपथम्) मोक्षमार्ग को ( वदन्ति ) कहते हैं (इति) इस प्रकार (एतत्) यह (अति) बड़े (अद्भुतम्) आश्चर्य की बात है।
__ भावार्थ-शिवजी अपनी हजारों भुजाओं को फैलाकर दिशाओं के चक्रमण्डल में नाचते हैं । विष्णुजी प्रमादी बनकर