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________________ २५४ : पंचस्तोत्र शेषनाग के शरीररूप शय्या पर मुँह खोलकर सोते हैं और ब्रह्माजी ने सुन्दर तिलोत्तमा के रूप को देखने के लिये चार मुख बनाये हैं ऐसी रागी जीवों को अहो ! आश्चर्य है कि लौकिक जन विद्वानों को मुक्ति-पथ का उपदेश देने वाले कहते हैं यह बड़े आश्चर्य की बात है । भला विचार कीजिये जिन्हें अपनी अतृप्त वासनाओं की तृप्ति से फुर्सत नहीं है वे मोक्षमार्ग का उपदेश कैसे दे सकते हैं ? फिर भी यदि उन्हें मोक्षमार्ग के उपदेशक माना जा रहा है तो यह अति आश्चर्यकारी है, कलिकाल का ही प्रभाव है ।। ८ ।। यो विश्वं वेद वेद्यं जननजलनिधेर्भङ्गिनः पारदृश्वा पौर्वापर्यविरुद्धं वचनमनुपमम् निष्कलङ्कं यदीयम् । तं वन्दे साधुवन्धं सकलगुणनिधि ध्वस्तदोषद्विषन्तम् बुद्धं वा वर्द्धमानं शतदलं निलयं केशवं वा शिवं वा ।। ९ ।। अन्वयार्थ (यः) जो ( वेद्यम् ) जानने योग्य ( विश्वम् ) विश्व को (वेद) जानता है और जो ( भङ्गिनः) नाना प्रकार के राग-द्वेष-शोक-भय-पीड़ादि (जननजलनिधेः ) संसारसमुद्र के (पारदृश्वा) पार को देख चुके हैं ( यदीयम् ) जिनका ( वचनम् ) वचन ( अनुपमम् ) उपमा रहित, (निष्कलङ्कम् ) निर्दोष (पौर्वापर्यविरुद्धम्) पूर्वापरविरोध से रहित है (सकलगुणनिधिम् ) समस्त गुणों के स्वामी ( ध्वस्तदोषद्विषन्तम् ) नष्ट कर दिये हैं राग-द्वेषादि दोषों को जिन्होंने (साधुवन्धम् ) ऋषिमुनियों के द्वारा वन्दनीय ( तं ) उन महान् परमात्मा की ( अहम् ) मैं (वन्दे) वन्दना करता हूँ वह ( बुद्धं वा) चाहे बुद्ध हो, (बर्द्धमानं वा) चाहे वर्द्धमान हो ( वा शतदलनिलयम् ) चाहे ब्रह्मा हो (वा केशवम् ) चाहे विष्णु हो (वा शिवम् ) अथवा महादेव हो । ____ भावार्थ जो जानने योग्य सर्व विश्व को जानते हैं, रागद्वेषादि अठारह दोषों से रहित हैं, संसारसमुद्र से पार हो चुके हैं, जिनके वचन निर्दोष, उपमा रहित, पूर्वापर विरोध से रहित हैं ऐसे
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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