________________
२५२ : पंचस्तोत्र
अर्थात् कवलाहार से रहित है। पूर्ण ब्रह्मचर्य का धारक होने से स्त्री- पुत्रादि से रहित्र, जन्म-मरण के दुःखों से हर विकास सर्व पदार्थों को जानता हुआ अपनी आत्मा के अन्तरंग वैभव में लीन है । वही ज्ञानियों के द्वारा उपास्य हैं । ब्रह्मा चर्माक्षसूत्री सुरयुवति रसावेशविभ्रान्तचेताः शम्भुः खट्वाङ्गधारी गिरिपतितनयापाङ्गलीलानुविद्ध । विष्णुश्चक्राधिप सन् दुहितरमगमद गोपनाथस्य मोहादर्हन् विध्वस्त रागोजितसकलभयः कोऽयमेष्वाप्तनाथः ।।७।।
अन्वयार्थ – (ब्रह्मा) ब्रह्माजी (चर्माक्षसूत्री) चमड़ा और अक्षमाला को रखते हैं, (तथा) (सुरयुवति रसावेशविभ्रान्तचेताः ) जिनका चित्त देवाङ्गनाओं के प्रेम से विभ्रान्त हो रहा है। (शम्भु) महादेव जी ( खट्वाङ्गधारी) चारपाई पर सोने वाले, (गिरिपतितनयापाङ्गलीलानुविद्ध) हिमालय की पुत्री पार्वती के कामचेष्टा से पीड़ित हैं (विष्णु) विष्णुजी (चक्राधिपः ) सुदर्शन चक्ररल के स्वामि ( सन्) होते हुए (गोपनाथस्य ) ग्वालों के राजा की (दुहितरम्) पुत्री को (अगमत् ) सेवन करने वाले हैं ( एषु ) इन ब्रह्मा, महादेव और विष्णुमें (विध्वस्तरागः ) राग का नाश करने वाले/ वीतरागी ( जितसकलभयः ) समस्त प्रकार के भय को जीतने वाला (अयम् ) यह (आप्तनाथ ) वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी तीन लोक का स्वामी (अर्हन्) अरिहन्त ( क ) कौन ( अस्ति ) है ? अर्थात् कोई नहीं है ।
1
भावार्थ --- १. लोक में जिसे ब्रह्मा कहा जाता है वह जीवों का कलेवर चमड़ा और अक्षमाला रखता है । स्त्री राग में उन्मत्त हो रहा है । देवाङ्गनाओं के हास - विलास में उसका चित्त चलायमान हो चुका है।
२. लोक में जिसे शम्भु / शंकर कहते हैं वह स्वयं वासना लम्पटी हो चारपाई पर सोता है, पार्वती के राग में अन्धा हो स्वको जानता ही नहीं है ।