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अकलंक स्नात्र : २४९ व्याधि आदि सर्व दोषों से मुक्त निर्दोष ही हमारा ब्रह्मा हो सकता है इनसे भिन्न अन्य कोई लौकिक ब्रह्मा हमें मान्य नहीं है । यो जग्ध्वा पिशितं समत्स्य कवलम् जीवं च शून्यं वदन् कर्ता कर्मफलं न भुंक्त इति योवक्ता स बुद्धः कथम् । यज्ज्ञानं क्षणवर्ती वस्तु सकलं ज्ञातुं न शक्तं सदा यो जानन्युगपज्जगत्त्रयमिदं साक्षात् स बुद्धो मम ।। ५ ।।
अन्वयार्थ (यः) जो ( समत्स्य कवलम् ) मगरमच्छों के ग्रास वाले (पिशितं ) मांस को ( जग्ध्वा ) खाता है (च) और ( यः ) जो जीव तो ( शून्यम् । शून्य वचन ! करता है। त्र)
और ( कर्ता) कर्म को करने वाला ( कर्मफलं) कर्मफल को (न) नहीं (भुंक्त) भोगता (इति) इस प्रकार ( यः) जो (वक्ता ) कहता है (च) और (यज्ज्ञानं ) जिसका ज्ञान (क्षणवर्ती) क्षणिक है अत: ( यः ) जो (सकलं वस्तु) मम्पूर्ण पदार्थों को (ज्ञातुम् ) जानने के लिये (शक्तम् ) समर्थ ( 7 ) नहीं है ( सः) वह (बुद्धः ) बुद्ध (कथम्) कैसे ( भवेत् ) हो सकता है, कभी नहीं। किन्तु (यः) जो ( सदा) निरन्तर ( युगपत् ) एकसाथ (इदम्) इस (जगत्त्रयं) तीन जगत् को ( साक्षात् ) प्रत्यक्ष ( जानन्) जानता है (स) वह ( मम) मेरा (बुद्ध) बुद्ध है।
भावार्थ-लोक में जो मगरमच्छों के ग्रास वाले माँस पिण्ड को खाता है, जीव को शून्य कहता है । जो यह कहता है कि जीव कर्म को करता तो है पर उसके फल को भोगता नहीं है तथा जिसका ज्ञान भी क्षणस्थायी है । क्षण-क्षण में परिवर्तनशील है इस कारण जो सम्पूर्ण पदार्थों को जानने में समर्थ नहीं है वह मुझ अकलंक का "बुद्ध" कैसे हो सकता है । आचार्यश्री अकलंक स्वामी लिखते हैं—मेरे द्वारा पूज्य मेरा बुद्ध वही है जो त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को एकसाथ प्रत्यक्ष जानने में समर्थ