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________________ २४८ : पंचस्तोत्र I हुआ है प्राणीमात्र को हित का उपदेश देने से हितोपदेशी प्राणीमात्र का रक्षक अरहन्त ही मेरा महाविष्णु मुझे सदा मान्य हैं/ इष्ट हैं । इनसे भिन्न कोई अन्य जन संहारक विष्णु नहीं हो सकता है । उर्वश्यामुदपादिरागबहुलं चेतो यदीयं पुनः पात्रीदण्डकमण्डलु प्रभृतयो यस्याकृतार्थ स्थितिमाविर्भावयितुं भवन्ति सकथं ब्रह्माभवेन्मादृशां क्षुत्तृष्णाश्रमरागरोगरहितो ब्रह्माकृतार्थोऽस्तु नः । । ४ । । अन्वयार्थ - ( यदीयं ) जिसके (चेतः) चित्तने (उर्वश्याम् ) उर्वशी नाम की देवाङ्गना में (रागबहुलम् ) राग की अधिकता को अर्थात् कामवासना की तीव्रता को ( उपपादि ) उत्पन्न किया (पुनः) और ( पात्रीदण्डकमण्डलुप्रभृतयः ) पात्र, दण्ड, कमण्डलु आदि बाह्य परिग्रहरूप पदार्थ ( यस्व ) जिसकी (अकृतार्थस्थितिम् ) अकृतकृत्य दशा को (आविर्भावयितुम् ) प्रकट करने में ( भवन्ति ) समर्थ हैं ( स ) वह ( मादृशाम् ) मुझ जैसों का (ब्रह्मा) ब्रह्मा ( कथं ) कैसे ( भवेत् ) हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता । किन्तु ( क्षुत्तृष्णाश्रमरागरोगरहितः ) क्षुधा, तृषा, थकावट, राग, पीड़ा / व्याधि रहित ( कृतार्थ ) कृतकृत्य ( स ) वही (नः) हमारा (ब्रह्मा) ब्रह्मा ( भवेत् ) हो सकता है । भावार्थ - जिसके चित्त ने कुचेष्टाओं के द्वारा उर्वशी नाम की देवाङ्गना में व्रती काम-वासना को उत्पन्न किया है। जो अकृतकृत्य है । अकृतार्थ अन्तरंग दशा के कारण ही जो बाह्य में पात्र, दण्ड, कमण्डलु आदि धारण करता है ऐसा अकृतकृत्य मुझ समन्तभद्र का वन्दनीय ब्रह्मा कैसे हो सकता है ? कभी नहीं । हमारा ब्रह्मा कौन है— जो पूर्ण कृतकृत्य है, जिसे संसार में अब कुछ करना शेष नहीं रह गया है, जो कुछ भी करना था वह कर चुका है अतः कृतार्थ है, क्षुधा, तृषा, थकावट, राग- आधि
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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