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________________ अकलंक स्तोत्र : २४७ नहीं हो सकता है, मेरा शंकर तो वही है जो भय, तृषा, क्रोध, दुःख, मोह को क्षय करके सर्वज्ञता को प्राप्त कर चुका है तथा जो प्राणीमात्र का कल्याण करने वाला है । वही मेरा शं याने शान्ति कर याने करने वाला, शान्ति प्रदान करने वाला शंकर है । इनसे भिन्न अन्य कोई नहीं। यत्नाद्येन विदारितं कररूहैर्दैत्येन्द्र वक्षस्थलं सारथ्येन धनञ्जयस्य समरे यो मारयत्कौरवान् । नासौ विष्णुरनेककाल विषयं यज्ज्ञानमव्याहतं विश्वं व्याप्य विजृम्भते स तु महाविष्णु सदेष्टो मम ।। ३ ।। अन्वयार्थ (येन) जिसने ( यत्नात् ) प्रयत्न से ( करसहै:) नाखूनों के द्वारा (दैत्येन्द्र वक्षस्थलम् ) दैत्यराज हिरण्यकश्यप के वक्षस्थल/सीने को (विदारितम्) छिन्न-भिन्न कर दिया और (यः ) जिसने ( समरे ) युद्ध में ( धनञ्जयस्य) धनञ्जय अर्जुन का (सारथ्येन ) सारथी होकर ( कौरवान् ) कौरवो का ( अमारयत्) परवाया ( असौ) वह (विष्णुः ) विष्णु (न) नहीं ( भवेत् ) हो सकता (किन्तु) (यज्ज्ञानं) जिसका ज्ञान (अव्याहत ) बाधा रहित, निरावरण बेरुकावट है ( विश्वं ) तीन लोक को ( व्याप्य ) व्याप्त करके (विजृम्भते) वृद्धि को प्राप्त हुआ है ( सः) वही ( महाविष्णुः) महाविष्णु (मम) मुझ अकलंक को (सदा ) सदा/हमेशा ( इष्टा ) इष्ट है, मान्य है। भावार्थ-जिसने बहुत प्रयत्न से अपने हाथ के नाखूनों के द्वारा दैत्यराज हिरण्यकश्यप के सीने को छिन्न-भिन्न कर दिया, जिसने अर्जुन का सारथी बनकर युद्ध में कौरवों को मरवाया, ऐसा वह दयाहीन अवतार सबका रक्षक विष्णु कैसे हो सकता है अर्थात् विष्णु नहीं है। विष्णु कौन है ? आचार्यश्री अकलंक स्वामी लिखते हैं कि जिसका ज्ञान बाधा रहित है, आवरण रहित है, रुकावट रहित है, तथा तीन लोक व्याप्त करके वृद्धि को प्राप्त
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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