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अकलंक-स्तोत्रम् त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविषयं सालोकमालोकितम् साक्षाद्येन तथा स्वयं करतले रेखात्रयं साङ्गली । रागद्वेषभयामयान्तक जरा लोलत्वलोभादयो नालं प्रत्यदलंघनाय म महादेवो मया वन्द्यते ।। १ ।।
अन्वयार्थ (येन) जिनके द्वारा ( साङ्गली ) अङ्गलियों के साथ ( स्वयं करतले) अपने हाथ की हथेली में रहने वाली (रेखात्रयं) तीन रेखाओं के (यथा) समान (सालोकम् त्रैलोक्यं) अलोकाकाश सहित तीनों लोकों को (सकलं ) समस्त ( त्रिकाल विषयं) त्रिकालवर्ती पदार्थों को ( साक्षात् ) प्रत्यक्ष रूप से (आलोकितम्) देख लिया गया है, (यत् पदलंघनाय ) जिनके पद को उल्लंघन करने के लिये ( राग-द्वेष भयामयान्तजरालोलत्वलोभादयः) राग, द्वेष, भय, रोग, यम, जरा, बुढ़ापा, चञ्चलता, लोभ, मोह आदि कोई भी ( अलं) समर्थ (न) नहीं (अस्ति) है ( महादेवः) महादेव (स) वह ( मया ) मेरे द्वारा (वन्द्यते) वन्दना किया जाता है।
भावार्थ-संसार में जिस प्रकार नेत्रवान व्यक्ति को अपने करतल ( हाथ में ) स्थित तीन रेखाएँ अंगुली सहित स्पष्ट दिखाई देती हैं । उसी प्रकार जिनके केवलज्ञान में अलोक सहित त्रैलोक्य के त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थ प्रत्यक्ष ( करतल में स्थित रेखात्रय की तरह) दिखाई देते हैं वे ही मुझ अकलंक के वन्दना योग्य महादेव हैं। अन्य लौकिक महादेव मेरा सच्चा महादेव नहीं है। राग-द्वेष, भय, रोग, यम, जरा, चञ्चलता, मोह आदि कोई भी विकृतियाँ जिन्हें अपने पद से चलायमान करने में समर्थ नहीं हैं वह ही महादेव मेरे द्वारा वन्दना के योग्य हैं, अन्य रागी-द्वेषी महादेव मेरे द्वारा कभी भी वन्दनीय नहीं है।