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२४४ : पंचस्तोत्र समय लगाया है। अब मैं इसका अन्त करना चाहता हूँ । शास्त्रार्थ प्रारम्भ होते ही देवी ने जो बोला उसी को दोहराने के लिए अकलंकदेव ने कहा । देवी चुप रही । अकलंकदेव के प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकी । अन्त में अपमानित हो भाग खड़ी हुई।
इसके बाद ही अकलंकदेव उठे और परदे को फाड़कर उसके भीतर घुस गये । वहाँ जिस घड़े में देवी का आह्वान किया गया. उन्य उन्होंने पाँव की ठोकर से फाड़ डाला। संघश्री जैसे मिथ्यात्रियों का अभिमान चूर्ण किया । अकलंक को इस विजय से जिनधर्म की अपूर्व प्रभावना हुई । अकलंकदेव ने सब लोगों के सामने जोर देकर कहासज्जनों ! मैंने इस धर्मशून्य संघश्री को पहले ही दिन पराजित कर दिया था, किन्तु इतने दिन जो मैंने देवी के साथ शास्त्रार्थ किया. वह जिनधर्म का माहात्म्य प्रगट करने के लिये और सम्यग्ज्ञान का लोगों के हृदय में प्रकाश डालने के लिये था । यह कहकर अकलंकदेव ने श्लोक पढ़ा
नाहंकारवशीकृतेन मनसा न द्वेषिणाकेवलं, नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यतिजने कारुण्यबुद्ध्या मया । राज्ञः श्री हितशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो. बौद्धोधान्सकलान्विजित्य सुगतः पादेन विस्फालितः ।। इस प्रकार अकलंकदेव ने सम्यग्ज्ञान की प्रभावना की. उसका महत्त्व सर्व साधारण लोगों के हृदय पर अंकित कर जिनशासन की अपूर्व प्रभावना थी।
महाराज हिमशीतल और प्रजा के लोग जिनशासन की प्रभावना देखकर बहुत खुश हुए । सबने मिथ्यामत छोड़कर जिनधर्म स्वीकार किया । जिनधर्म के प्रभाव से जिनशासन का उपद्रव टला देखकर महारानी मदन सुन्दरी ने बड़े उत्साह से श्रीजीका रथ निकलवाया । आचार्य अकलंकदेव जयवन्त हों।