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२० : पंचस्तोत्र मुख-चन्द्र हमेशा उदित रहता है । चन्द्रमा सिर्फ अन्धकार को नष्ट करता है, पर आपका चन्द्रमुख मोहरूपी अन्धकार को भी नष्ट कर देता है । चन्द्रमा राहु के द्वारा ग्रसा जाता है, पर आपके मुखचन्द्र को राहु नहीं ग्रस सकता । चन्द्रमा को बादल छिपा लेते हैं, पर आपके मुखचन्द्र को बादल नहीं छिपा सकते । चन्द्रमा की कान्ति कृष्ण पक्ष में घट जाती है, पर आपके मुखचन्द्र की करन्ति हमेशा बढ़ती ही रहती है, और चन्द्रमा सिर्फ मध्यलोक को प्रकाशित करता है, पर आपका मुखचन्द्र तीनों लोकों को प्रकाशित करता है ।।१८।। किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा
युष्मन्मुखेन्दुदलितेषु तमःसु नाथ ! । निष्यन्नशालिवनशालिनि जीवलोके
कार्य कियज्जलधरैर्जलभारननैः ।।१९।। क्या भानु से दिवस में निशि में शशी से.
तेरे प्रभो ! सुमुख से तम नाश होते ! अच्छी तरह पक गया जग बीच धान,
है काम क्या जल भरे इन बादलों से ।। १९ ॥ टीका-भो नाथ ! युष्मन्मुखेन्दुदलितेषु भवन्मुखचन्द्रस्फेटितेषु । तमस्सु अन्धकारेषु । शर्वरीषु रात्रिषु । शशिना चन्द्रेण किं कार्य ? वा अथवा । अह्नि दिवसे। विवस्वता सूर्येण किं कार्यं ? युष्मत्तव मुखमेवेन्दुश्चन्द्रस्तेन दलितानि तेषु । जीवलोके पृथिव्यां । निष्पनशालिवनशालिनि सति जलभारननैर्जलधरैर्मेधैः कियत्कार्यं कि प्रयोजनं? निष्पन्नानि च तानि शालीनां वनानि च निष्पन्नशालिवनानि तै: शालते शोभत इति निष्पन्नशालिवनशालि तस्मिन् निष्पन्नशालिवनशालिनि । जलभारेण नम्रा जलभारनम्रास्तै ।।१९।।
अन्वयार्थ—(नाथ ! ) हे स्वामिन् ! (तमःसु युष्पन्मुखेन्दुदलितेषु सत्सु') अन्धकार के, आपके मुखचन्द्रमा के द्वारा नष्ट हो