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________________ .:. एकविरोध २३२ पूजिते पदे चरणकमले यस्य स तस्यामंत्रणे हे भक्तिप्रह्वमहेन्द्रपूजितपद ! त्वत्कीर्त्तने तव स्तवने संयमभृतो गणधरादयोऽपि क्षमा न समर्था न । कथंभूताः संयम भृतः ? सूक्ष्मज्ञान दृश: सूक्ष्मज्ञानमेव दृक् येषां ते । वयं अस्मद विधा: मंदमेधसः के ? तु पुनः तस्माभिः स्तवनच्छलेन स्तोत्रमिषेणैव त्वयि विषये आदरः तन्यते विस्तार्यते, स्तवनस्य छलं स्तवनच्छलं तेन । कीदृशः आदरः परः उत्कृष्टः खलु निश्चितं सकल्याणकल्पद्रुमः नः अस्माकं अस्तु । कीदृशानामस्माकं ? स्वात्माधीनसुखेषिणां स्वस्य आत्मा स्वात्मा अथवा सुष्ठु च आत्मा च स्वात्मा तदधीनं यत्सुखं तदिच्छतीति तेषां कल्याणानां कल्पद्रुमः कल्याणकल्पद्रुमः ।। २५ ।। , 1 अन्वयार्थ – (भक्तिप्रह्वमहेन्द्रपूजितपद ! ) भक्ति से नम्र हुए देवेन्द्र के द्वारा पूजित हैं चरण जिनके ऐसे हे जिनेन्द्र ! जबकि ( त्वत्कीर्तने) आपकी प्रशंसा करने में (सूक्ष्मज्ञानदृशः ) सूक्ष्मज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले (संयमभृतः अपि ) तपस्वी भी अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानादि के धारक संयमी योगीश्वर भी - ( न क्षमा : ) समर्थ नहीं हैं तब ( हन्तः ) खेद है कि ( वयं मन्दा: के) हम जैसे मन्दबुद्धि पुरुष आपकी स्तुति करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? तथापि ( स्तवनच्छलेन) स्तवन के छल से ( अस्माभिः ) हमारे द्वारा (तु) तो सिर्फ ( त्वयि ) आपके विषय में ( परः ) उत्कृष्ट ( आदरः ) आदर- प्रेम ही ( तन्यते ) विस्तृत किया जाता है । और ( खलु ) निश्चय से (सः) वह आदर ही (स्वात्माधीनसुखैषिणां ) आत्मसुख के इच्छुक (नः) हमलोगों के लिये ( कल्याणकल्पद्रुमः ) कल्याण करने वाला कल्पवृक्ष होवे | भावार्थ हे नाथ! आप जैसे परमयोगीन्द्र की, जब द्वादशांग का पाठी इन्द्र भक्तिपूर्वक स्तुति करता है और चार ज्ञान के धारक गणधरादिक भी आपको अपनी स्तुति का विषय बनाते हैं, तथा अनेक ऋद्धियों के धारक क्षीणकाय मुनिपुंगव भी जब
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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