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२३८ : पंच स्तोत्र
सुखज्ञानदृग्वीर्याणि च तैः रूप्यते लक्ष्यते इति निरतं खलु निश्चितं सुकृति पुमान् तावता श्रेयोमार्ग पूरयित्वा पंचधा पंचितानां कल्याणानां विषयो स्थानं भवति । पंचधा पंचिताः विस्तृताः तेषां पंचधा पंचितानाम् ||२४||
अन्वयार्थ - ( देव !) हे जिनेन्द्र ! (निरवधिसुखज्ञानदृग्वीर्यरूपम् ) अनंतसुख, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तवीर्यस्वरूप (त्याम्) आपको ( चित्ते कुर्वन्) हृदय में धारण करता हुआ (यः) जो मनुष्य ( समयनियमात् ) समय के नियम से अर्थात् त्रिकाल में (आदरेण ) विनयपूर्वक (स्तवीति ) आपकी स्तुति करता है। ( खलु ) निश्चय से (सः) वह मनुष्य ( तावता ) उतने ही से स्तवन करने मात्र से ही - ( श्रेयोमार्ग ) मोक्षमार्ग को ( पूरयित्वा ) पूर्ण करके ( पंचधा पंचितानाम् ) पंच प्रकार से विस्तृत ( कल्याणानाम् ) कल्याणकों का -- गर्भ, जन्म तप, ज्ञान और निर्वाण रूप पंच कल्याणकों का - ( विषयः भवति ) पात्र होता है ।
भावार्थ - अनन्तचतुष्टयस्वरूप हे नाथ! जो भव्य पुरुष आपका आदर भक्तिसे स्तवन करता है वह पुण्यात्मा पंच कल्याणकों का पात्र होता हुआ मोक्षमार्ग का नेता होता है ।। २४ ।।
भक्तिप्रह्वमहेन्द्रपूजितपद त्वत्कीर्त्तने न क्षमा:सूक्ष्मज्ञानदृशोऽपि संयमभृतः के हन्त मन्दा वयम् । असमभिः स्तवनच्छलेन तु परस्त्वय्यादरस्तन्यते, स्वात्माधीनसुखैषिणां सखलु नः कल्याणकल्पद्रुमः ।। २५ । ।
अहो जगत पति पूज्य अवधिज्ञानी मुनि हारे ।
विचारे ||
तुम गुण कीर्त्तनमाँहि कौन हम मन्द श्रुति छलसों तुम विषै देव आदर विस्तारे । शिव सुख पूरनहार कल्पतरु यही हमारे ।। २५ ।। टीका - भक्त्या प्रो नम्रीभूतो यो महेन्द्र तेन पूजितपदे महेन्द्रेण