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________________ २३४ : पंच स्तोत्र समान नहीं हो, इसीलिये आप की तुलना अन्य संसारी अल्पज्ञ प्राणियों के साथ नहीं की जा सकती, क्योंकि आप अनुपम हैं । (ततः) इसलिये (नः) हमारे अभी (स्तुस्युद्गाराः) ये स्तुतिरूपी उद्गार (त्वयि ) आप तक (कथमिव) किस तरह (क्रमन्ते) पहुँच सकते हैं प्राप्त हो सकते हैं अथवा ( एवं मा अभूवतन्) ऐसे मत हो—अर्थात् हमारे वचन आप तक न भी पहुँचे (तदपि ) तो भी ( भक्तिपीयूषपुष्टाः) भक्तिरूपी अमृत से परिपुष्ट हुए (ते ) वे स्तुतिरूप उद्गार ( भव्यानाम् ) भव्यजीवों के लिये ( अभिमतफलाः) इच्छित फल देने वाले ( पारिजाताः) कल्पवृक्ष ( भवन्ति ) होते हैं। भावार्थ हे नाथ ! हमारे वचनों की प्रवृत्ति अन्य अल्पज्ञ जीवों के समान हा है। परन्तु आप राग-द्वेषादि शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर चुके हैं अत: आपकी तुलना अन्य अल्पज्ञ संसारी जीवों से नहीं की जा सकती है, क्योंकि आप सच्चिदानन्द, परमब्रह्म परमात्मा हैं । यद्यपि हमारे स्तुतिरूपी उद्गार आपके समीप तक नहीं पहुँचते हैं, तो भी आपकी समीचीन भक्तिरूप-अमृत से पुष्ट हुए ये स्तुतिरूप उद्गार भव्य जीवों के लिये कल्पवृक्ष के समान इच्छित फल के देने वाले होते हैं ।। २१ ।। कोपावेशो न तव क्वापि देव प्रसादो, व्याप्तं चेतस्तव हि परमोपेक्षयैवानपेक्षम् । आज्ञावश्यं तदपि भुवनं संनिधिर्वैरहारि, क्वैवंभूतं भुवनतिलकं प्राभवं त्वत्परेषु ।।२२।। कोप कभी नहीं करो प्रीति कबहूँ नहिं धारो। अति उदास वेचाह चित्त जिनराज तिहारो॥ तदपि जान जग वहै वैर तुम निकट न लहिए। यह प्रभुता जगतिलक कहाँ तुम बिन सरदहिये ।। २२ ॥ टीका-हे देव ! तव परमेश्वरस्य क्वापि कोपावेशो न,
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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