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________________ — एकीभाव सत्र २३३ स्वयं तरने और तारने वाले हैं और मुक्तिरूप लक्ष्मी के अधिपति हैं तथा संसार के समस्त जीवों के अकारण बन्धु हैं उन्हें संसार के दुःखों से छुटाने वाले हैं और हेयोपादेय रूप तत्त्वों का परिज्ञान कराते हैं इसलिये आप उनके प्रभु हैं, आपने जिस उच्च आदर्श को प्राप्त किया है वही संसारी जीवों के द्वारा प्राप्त करने योग्य है, इन्हीं सब कारणों से आपकी महत्ता एवं प्रभुता संसार में प्रकट होती है ।। २० ।। वृत्तिर्वाचामपरसदृशी न त्वमन्येन तुल्यस्तुत्युद्गाराः कथमिव ततः त्वय्यमी न क्रमन्ते । मैवं भूवंस्तदपि भगवन् भक्तिपीयूषपुष्टा स्तेभव्यानामभिमतफलाः पारिजाता भवन्ति ।। २१ । । वचन जाल जड़रूप आज चिन्मूरति तातें धुति आलाप नाहि पहुँचे तुम तो भी निष्फल नाँहि भक्तिरस भीने संतन को सुरतरु समान वांछित वर दायक ॥। २१ ।। टीका- भो भगवन् ! वाचांवृत्तिर्वाग्विलासः अपर सदृश (अपरेणसदृशी अपरसदृशी) त्वम् अनुपमानः । त्वं देवः अन्येन न तुल्योऽसि, अनुपमोऽसि। ततस्तस्मात्कारणात् नोऽस्माकं अमीस्तुत्युद्गाराः त्वयि विषये कथमिव क्रमन्ते । अस्माकं स्तुतिविलासा कथमिव तुभ्यं रोचते । एवं यद्यपि वर्तते, तदपि एवं मा अभूवन् । ते भक्तिपीयूषपुष्टाः स्तुत्युद्गाराः भव्यानां अभिमतफलाः पारिजाताः मनोऽभीष्टफलाः कल्पवृक्षाः भवन्ति । भक्तिरेव पीयूषं भक्ति पीयूषं तेन पुष्टाः अभिमतं फलं येषां ते ।। २१ ।। झाँई । ताई ॥ वायक अन्वयार्थ - - ( भगवन् !) हे स्वामिन्! ( वाचांवृत्ति:) हमारे वचनों की प्रवृत्ति (अपरसदृशी ) दूसरे अल्पज्ञ मनुष्यों के समान है— जैसे अन्य अल्पज्ञ मनुष्यों की वाणी होती है वैसी ही हमारी भी है, परन्तु ( त्वं ) आप ( अन्येन न तुल्यः ) दूसरे पुरुषों के
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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