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________________ २३२ : पंच स्तोत्र टीका-भो देव ! इन्द्रः तव भगवतः सेवा सुकुरुतां तया सेवया ने तव किं श्लाघनं प्रशंसनं अपितु न । तस्येन्द्रस्य इयमेव सेवा श्लाध्यता प्रशंसतां आतनोति विस्तारयति । कथंभूतेयं (सेवां? ) भवलयकरी भवः संसारस्तस्यलयो नाशस्तं करोति । भो देव ! इतिकारणात् तत्र स्तोत्रम् इत्थं श्लाघ्यते । इतीति किं यत्तः कारणात् त्वं जननजलधे: संसारसमुद्रात् निस्तारी वर्तसे च पुनः त्वं सिद्धिकान्तापतिः, चं लोकानां प्रभुः, जननमेवजलधिः तस्मात्, सिद्धिकांतायाः पतिः सिद्धिकातापतिः ।। २० ।। अन्वयार्थ—हे जिनेन्द्र ! ( इन्द्रः) इन्द्र देवराज (तव) तुम्हारी-आपकी (सेवाम् ) पूजा-स्तुति-वंदना आदि सेवा को ( सुकुरुताम् ) अच्छी तरह से करे, परन्तु ( तया) उसके द्वारा (ते) आपकी (किंश्लाघनं ) क्या प्रशंसा है ? किन्तु ( भवलयकरी) संसार परिभ्रमण का नाश करने वाली ( इयम् ) यह सेवा तो (तस्य एव) उस इन्द्र की ही (श्लाध्यताम्) प्रशंसाको (आतनोति ) विस्तृत करती है- बढ़ाती हैं । किन्तु ( त्वं ) आप (जननजलधेः ) संसारसमुद्र से ( निस्तारी ) तरने और तारने वाले हैं, तथा (त्वं) आप (सिद्धिकान्तापतिः) मुक्तिरूपी स्त्री के स्वामी हैं और ( त्वं ) आप ( लोकानां प्रभुः) संसार के समस्त प्राणियों के पति हैं (इत्थम्) इस तरह से ( तव ) आपका यह (स्तोत्रम् ) स्तोत्र-स्तवन (श्लाध्यते) प्रशंसित किया जा सकता है। भावार्थ हे नाथ ! इन्द्र आपकी सेवा, वन्दना, पूजा, स्तुति आदि करता है, केवल इसीसे आपकी कोई महत्ता और प्रशंसा नहीं हो सकती है, क्योंकि इन्द्र तो आपकी समीचीन भक्ति एवं स्तुति, पूजादि से महान् पुण्य का संचय करता है, और वह भक्ति उसके लिये भवलयकरी संसार का नाश करने वाली होती है । इसी से वह एक भवावतारी हो जाता है अर्थात् मनुष्य का एक भव धारण करके ही मोक्ष चला जाता है । परन्तु आप संसार-समुद्र से
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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