________________
एकीभाव स्तोत्र : २३१ देवत्वविहीन पुरुषों में भी देवकी कल्पना कर लेते हैं। जिनका चित्त राग-द्वेष से मलिन है, दूषित है—जो स्वभाव से ही कांतिहीन एवं अमनोज़ हैं । और अनेक प्रकार के अस्त्रों-शस्त्रों से सुसज्जित हैं अथवा बहुमूल्य वस्त्राभूषण और स्त्री, गदा आदि अस्त्रों ( हथियारों) से जिनकी पहिचान होती है । जो नाना प्रकार के वस्त्राभूषणों से शरीर को अलंकृत करने की इच्छा करते हैं। जिन्हें शत्रुओं से सदा भय बना रहता है अतएव गदा, त्रिशूल आदि अस्त्रों को धारण किये हुए हैं, जैनधर्म ऐसे भेषी-रागी-द्वेषी पुरुषों को देव नहीं कहता, और न उनमें देवत्व का वास्तविक लक्षण ही घटित होता है । परन्तु जिनेन्द्र भगवान् स्वभाव से ही मनोज्ञ हैं---कान्तिवान् है । अत: वे कृत्रिम वलभूषणों से शरीर को अलंकृत नहीं करते हैं । उन्होंने देह-भोगों का खुशी-खुशी त्याग किया है और मोह शत्रु पर विजय प्राप्त की है । इसके सिवाथ, उन्हें किसी शत्रु आदि का कोई भय नहीं है और न संसार में उनका कोई शत्रु, मित्र ही है, वे सबको समानदृष्टि से देखते हैं, चाहे पूजक और निंदक कोई भी क्यों न हो, किसी से भी उनका सग-द्वेष नहीं है। उनके आत्मतेज या तपश्चरण विशेष की सामर्थ्य से कट्टर बैरी भी अपने बैर-विरोध को छोड़कर शान्त हो जाते हैं । अत: ऐसे पूर्ण अहिंसक, परम वीतराग और क्षीणमोही परमात्मा को सुन्दर वस्त्राभूषणों और अस्त्र-शस्त्रों से क्या प्रयोजन हो सकता है ? अर्थात् कुछ नहीं ।। १९ ।। इन्द्रः सेवां तव सुकुरुतां किं तया श्लाघनं ते,
तस्यैवेयं भवलयकरी श्लाघ्यता-मातनोति । त्वं निस्तारी जननजलधेः सिद्धिकान्तापतिस्त्वं,
त्वं लोकानां प्रभुरिति तवश्लाघ्यतेस्तोत्रमित्थम् ।।२०।1 सुरपति सेवा करै कहा प्रभु प्रभुता तेरी। सो सलाघनाल है मिटै जगसौं जग फेरी ।। तुम भवजलधि जिहाज तोहि शिवकंत उचरिए । तुही जगत जन पालनाथ थुति की थुति करिए ।। २० ।।