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एकीभाव स्तोत्र : २३५ क्रोधप्रवेशो न वर्तते । कोपस्य आवेशः कोपावेशः । भो देव ! क्वापि प्रसादो न, प्रसन्नतापि न । हि निश्चितं तव चेतः परमोपेक्षया एव व्याप्तं । परमा चासौ उपेक्षाबुद्धिश्च परमोपेक्षा तया परमोपेक्षया इत्थम्भूतं चेतः ? न विद्यते अपेक्षा वांछा यस्य तत् । एवं यद्यप्यस्ति तदपि भुवनं आज्ञावश्यं विद्यते । आज्ञयैव वश्य आज़ावश्यं । यद्यपि तव क्वापि प्रसादो न, तदपि तव सन्निधिर्वैरहारी वर्तते । भो भुवनतिलक ! एवम्भूतं प्राभवं त्वत्परेषु हरिहरादिषु देवेषु प्राभवं प्रभुत्वं क्वास्ति? न क्वाप्यतीत्यर्थः । भुवनस्य तिलकः भुवनतिलकस्तस्यामंत्रणे हे भुवन तिलक ! त्वत्तः परे त्वत्परे तेषु त्वत्परेषु ।। २२ ।। ___अन्वयार्थ (हे देव ! ) हे नाथ ! (तव ) आपका ( क्वापि) किसी पर भी ( कोपावेशः) क्रोध भाव (न अस्ति) नहीं है और ( न तव) न आपकी (क्वापि) किसी पर प्रसादो प्रसन्नता है (हि) निश्चय से ( अनपेक्षम् ) स्वार्थ रहित (तव) आपका (चेतः) मन (परमोपेक्षया एव ) अत्यन्त उदासीनता से ( व्याप्तं) व्याप्त है (तदपि ) फिर भी (भुवनं) संसार (आज्ञावश्य) आपकी आज्ञा के अधीन है, और आपको (सनिधिः ) समीपता–निकटता (वैरहारी ) परस्पर के वैर-विरोध को हरने वाली है । और इस तरह ( भुवनतिलक !) तीनों लोकोंमें श्रेष्ठ हे देव ! ( एवम्भूतं) ऐसा (प्राभवं) प्रभाव कहाँ हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता।
भावार्थ-हे नाथ ! आपको न किसी से राग है और न द्वेष, आप न किसी पर प्रसन्न ही होते हैं और न किसी को अपने क्रोध का भाजन ही बनाते हैं, क्योंकि आप परम वीतरागी हैं, रागद्वेषादि के अभावरूप परम उपेक्षाभाव को अंगीकार किये हुए हैं ! परन्तु फिरभी, आपकी आज्ञा त्रैलोक्यवर्ती जीवों के द्वारा मान्य है तथा आपकी समीपता वैर-विरोध का नाश करने वाली है । साथ ही, आपकी प्रशांत मुद्रा मुमुक्षु जीवों के लिये साक्षात् मोक्षमार्ग को प्रकट करती है, उसके ध्यान एवं चिंतन से भव्यात्मा आत्माके