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एकीभाव स्तोत्र : २२७
तुम शिवसुखमय प्रगट मैं भगवान समान
करत प्रभुचिंतन तेरो । यो वरतें मेरो ।।
भाव
यदपि झूठ है तदपि तृप्ति निश्चल उपजावै । तुम प्रसाद सकलंक जीव वांछित फल पावै ॥ १७ ॥
टीका - भो देव ! प्रादुर्भूतं प्रकटीभूतं स्थिरपदसुखं मोक्षपदस्य सुखं यस्त (स तस्यामंत्रणे ) प्रादुर्भूतस्थिरपदसुखं मे ममत्वयि विषये । स अहमेव इतिमतिः उत्पद्यते । कथम्भूतस्य मे ? त्वामनुध्यायतः अनुध्यायतीति अनुध्यायन् तस्य । कीदृशी मतिः ? निर्विकल्पा निःसन्देहा इत्यर्थः । विकल्पा निष्कान्तानिर्विकल्पा । तदपि चेत् इयं मतिः अभ्रेषरूपां तृप्तिं निश्चलरूपां तृप्तिं मिथ्यैव तनुते विस्तारयते । दोषात्मानोऽपि पुमांसः त्वत्प्रसादात् तवप्रसादातः अभिमतफलाः भवन्ति । अभिमतं फलं येषां ते ।। १७ ।।
अन्वयार्थ -- (हे देव ! प्रादुर्भूतस्थिरपदसुखं ! ) प्रगट हुआ है मोक्ष का निश्चलसुख जिनको ऐसे (हे वीतरागदेव ) ( त्वामनुध्यायतः मे ) आपका बार-बार ध्यान करते हुए मेरे हृदय में ( त्वयि ) आपमें अथवा आपके विषय में ( अहं सः एव ) जो आप हैं वही मैं हूँ (इति) ऐसी जो (निर्विकल्पा) विकल्प रहित ( मतिः ) बुद्धि ( उत्पद्यते ) उत्पन्न होती है यद्यपि (इथम् मिथ्या एव ) यह बुद्धि असत्य ही है ( तदपि ) तो भी (अभ्रेषरूपां तृप्ति ) निश्चल अविनाशी सन्तोष सुख को (तनुते ) विस्तृत करती है। सच है ( त्वत्प्रसादात् ) आपके प्रसाद से ( दोषात्मानः अपि ) सदोषी पुरुष भी ( अभिमतफलाः भवन्ति ) अभिमत फल को प्राप्त कर लेते हैं अर्थात् जिनका आत्मा सदोषी है, पापकर्मरूप कालिमा से लिप्त है ऐसे मानव भी आपके प्रसाद से अभिमत फल को प्राप्त करते ही हैं ।
भावार्थ – हे नाथ! आपके पवित्र ज्ञानादि अनंत गुणों का ध्यान एवं चिन्तन करते-करते जो परमात्मा है सो मैं हूँ और जो मैं