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२२६ : पंच स्तोत्र
पुनः अमृताब्धेः मोक्षसागरस्य आयता मिलिता । च पुनः या गंगा त्वत्पदकमलयोः तवचरणकमलयोः संगता आश्रिता । तवपदकमले त्वत्पदकमले तयोः । तस्यां गंगायां ममचेतो ममान्तः करणंरुचिवशात् स्नेहयोगात् आलुप्तं स्नातमित्यर्थः । यदन्तः करणं क्षालितांहः भवति । इयं किं सन्देह भूमिः सन्देह स्थानं ? क्षालितं अहः कल्माषं पापरजो यस्य तत् सन्देहभूमिः ॥ १६ ॥
अन्वयार्थ - (हे देव ! ) हे नाथ ! ( नयहिमगिरेः ) स्याद्वादनयरूप हिमालय पर्वत से ( प्रत्युत्पन्ना ) उत्पन्न हुई (च) और ( अमृताब्धः ) मोक्षरूप समुद्र तक ( आयता ) लम्बी (या) जो यह ( त्वत्पदकमलयोः } आपके चरणकमल सम्बन्धी ( भक्तिगङ्गा) भक्तिरूपी गंगानदी ( सङ्गता) प्राप्त हुई है ( तस्यां ) उसमें ( रुचिवशात्) प्रेमके वश (आप्लुतम् ) डूबा हुआ (मम ) मेरा - हमारा ( चेत: ) मन ( यत् ) जो ( क्षालितांह: कल्माषं ) जिसकी पापरूपी कालिमा धुल गई है ऐसा- पापरूपी रजसे रहित (भवति) हो जाता है । ( देव !) हे नाथ ( इयम् ) यह (किम् ) क्या कोई (सन्देहभूमि ) सन्देह का स्थान है ? अर्थात् नहीं ।
भावार्थ - हे नाथ ! स्याद्वादनयरूप हिमालय से निकली और मोक्षरूपी समुद्र तक लम्बी यह आपकी भक्तिरूपी गंगा मुझे बड़े भारी भाग्योदय से प्राप्त हुई है, गंगा में स्नान करने से जिस तरह शरीर का बाह्य मैल धुल जाता है और वह स्वच्छ हो जाता है । उसी प्रकार आपकी भक्तिरूपी गंगा में स्नान करने से उसमें गोता लगाने से यदि मेरे अन्तःकरण की पापरूप कालिमा धुल कर मेरा मन पवित्र राग-द्वेषादि विभावभावों से रहित निर्विकार हो जाय, तो इसमें क्या सन्देह है ? अर्थात् कुछ नहीं ।। १६ ।। प्रादुर्भूतस्थिरपदसुखं त्वामनुध्यायतो मे,
त्वय्येवाहं स इति मतिरुत्पद्यते निर्विकल्पा । मिथ्यैवेयं तदपितनुते तृप्तिमभ्रेषरूपां दोषात्मानोऽप्यभिमतफलास्त्वत्प्रसादाद्भवंति
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।। १७।।