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________________ एकीभाव स्तोत्र : २२५ अष्टकर्मरूप पटलों से आच्छादित है—टकी हुई हैं और ( य: द्रष्टः आनन्दहेतुः ) जो ज्ञानी पुरुष को आनन्द का कारण है इसलिये (परेषां अनवाप्यः ) मिथ्यादृष्टियों के द्वारा अप्राप्त है उन्हें प्राप्त नहीं हो सकती । किन्तु ( भवद्भक्तिभाजः) आपकी भक्ति करने वाले भव्य पुरुष (तं ) उस आत्मज्ञानरूप सम्पत्ति को (बंधप्रकृतिपरुषोहामधात्री खनित्रैः स्तोत्रैः) प्रकृति-स्थिति-अनुभाग और प्रदेशबंधरूप अत्यन्त कठोर भूमि को खोदने के लिये कुदाली स्वरूप आपके स्तवनों के द्वारा ( अनतिचिरतः ) शीघ्र ही (हस्ते कुर्वन्ति ) अपने हाथ में कर लेते हैं-उसे प्राप्त कर लेते हैं । भावार्थ-जिस प्रक्षा' पृथ्वी गड़े हुए वन को दान कठोर भूमि को खोद कर निकाल लेते हैं । ठीक उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मरूप पुद्गल पिण्डों से आच्छादित अपनी ज्ञानादिरूप आत्मसम्पदा को आपके पवित्र स्तवनरूप कुदाल से कर्मबन्धनरूप अतिशय कठोर भूमि को खोद कर निकाल लेते हैं परन्तु मिथ्यादृष्टियों को वह नहीं प्राप्त होती ।। १५ ।। प्रत्युत्पन्ना नयहिमगिरेरायता चामृताब्धे र्यादेव त्वत्पदकमलयोः सङ्गता भक्ति गङ्गा । चेतस्तस्यां ममरुचिवशादाप्लुतं क्षालितांहः, कल्माष यद्भवति किमियं देव संदेह भूमिः ।।१६।। स्यावाद गिरि उपज मोक्ष सागर लों धाई। तुम चरणाम्बुज परस भक्ति गंगा सुखदाई ।। मोचित निर्मल थयो न्होन रुचि पूरब तामैं । सो वह हो न मलीन कौन जिन संशय यामै ।। १६ ।। टीका हे देव ! या प्रसिद्धाभक्ति गंगा भवद्भक्ति स्वधुंनी नयहिमगिरेः स्याद्वादनय रूपहिम पर्वतात् प्रत्युत्पन्नाऽस्ति । नय एव हिमगिरिः हिमाचलस्तस्मात् भक्तिरेव गंगा भक्तिगंगा कथम्भूता गंगा। च
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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