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१८ : पंचस्तोत्र नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति । नाम्भोधरोदरनिरुद्धमहाप्रभाव:
सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र ! लोके ।।१७।। तू हो न अस्त. तुझको गहता न राहू,
पाते प्रकाश तुझसे जग एकसाथ । तेरा प्रभाव रुकता नहिं बादलों से.
तू सूर्यसे अधिक है महिमा-निधान ।। १७ ।। टीका-भो मुनीन्द्र ! मुनीनां प्रत्यक्षज्ञानिनामिंद्रस्तस्यामंत्रणे । लोके पृथिव्यां । त्वं सूर्यातिशायिमहिमा कदाचिदस्तं नोपयासि स सूर्य: अस्तमुपयामि । त्वं राहुगम्यो नासि स तु राहुगम्यः । त्वं सहसा वेगेन । युगपत्सहैव । जगन्ति त्रैलोक्यं स्पष्टीकरोषि उद्योतयसि । त्वमम्भोधरोदरनिरुद्धमहाप्रभावो नांभोधरैर्मेधैरुदरमध्ये निरुद्धो महाप्रभावो यस्य सः । स तु अम्भोधरोदरनिरुद्धमहाप्रभावः ।।१७।। ____ अन्वयार्थ (मुनीन्द्र ! ) ( हे मुनियों के इन्द्र ! ) ( त्वम् ) तुम (कदाचित् ) कभी (न अस्तम् उपयासि) न अस्त होते हो ( न राहुगम्यः) न राहु के द्वारा ग्रसे जाते हो और (न अम्भोधरोदरनिरुद्धमहाप्रभावः) न मेघ के मध्य में छिप गया है महान् तेज जिसका ऐसे भी हो तथा ( युगपत् ) एक साथ (जगन्ति ) तीनों लोकों को ( सहसा ) शीघ्र ही ( स्पष्टीकरोषि ) प्रकाशित करते हो, (इति) इस तरह आप (सूर्यातिशायिमहिमा असि ) सूर्य से अधिक महिमा वाले हो ।
भावार्थ-हे प्रभो ! आपकी महिमा सूर्य से भी अधिक है। क्योंकि सूर्य सन्ध्या के समय अस्त हो जाता है, पर आप कभी अस्त नहीं होते । सूर्य को राहु ग्रस लेता है, पर आपको वह आज तक भी नहीं ग्रस सका है । सूर्य दिन में क्रम-क्रम से सिर्फ मध्य लोकको प्रकाशित करता है, पर आप एकसाथ समस्त लोक को