________________
भक्तामर स्तोत्र : १७ टीका-... भो नाथ ! त्वं जगन्मण्डलेऽपूर्व अपरः कश्चन दीपः । असि वर्तसे । कुतो हेतोः ? यत् इदं कृत्स्नं जगत्त्रयं युगपत्प्रकटीकरोषि उद्योतयसीत्यर्थः । कथंभूतस्तवलक्षणो दीपः? धूमश्च वर्तिश्च धूमवतों धूमवर्तिभ्यां निष्कान्तो निर्धमवर्तिः । पुनः कथंभृतः ? अपर्वाजता निराकृतस्तैलपूरो यन सः । पुनः कथंभूतः ? जातु कदाचिन्मरुतां गम्यो न मरुता न दनीध्वस्यसे इत्यर्थः । कथंभूतानां मरुतां? चलिता अचल्ला अद्रयो यैस्तैषां । पुनः कथंभृता? जगति त्रिभुवने प्रकाशो यस्य स दीप: सधूमवर्तिः पुनर्युक्ततैलपुरः । पुनः कथंभूतः ? एकं गृहं प्रकटीकरोति रस मरुतां वायूनां गम्यः स तु गृहप्रकाशक: ।।१६।।
अन्वयार्थ—(नाथ ! ) हे स्वामिन् ! आप (निर्धूमवर्तिः) धुआँ तथा बत्तीसे रहित निर्दोष प्रवृत्ति वाले और ( अपवर्जिततैलपूरः) तैलसे शून्य ( भूत्वा अपि) होकर भी (इदम् ) इस ( कृत्स्नम् ) समस्त ( जगत्त्रयम् ) त्रिभुवन को (प्रकटीकरोषि ) प्रकाशित कर रहे हो तथा (चलिताचलानाम् ) पहाड़ों को हिला देने वाली ( मरुताम् ) वायु के भी ( जातु ) कभी ( गम्यः न ) गम्य नहीं हो-वायु बुझा नहीं सकती । इस तरह ( त्वम्) आप ( जगत्प्रकाशः) संसार को प्रकाशित करने वाले ( अपर: दीपः) अपूर्व दीपक ( असि ) हो ।
भावार्थ हे नाथ ! आप समस्त संसार को प्रकाशित करने वाले अनोखे दीपक हैं, क्योंकि अन्य दीपकों की बत्ती से धुवाँ निकलता रहता है, पर आपकी वर्ति-मार्ग निर्धूम-पाप रहित है ।
अन्य दीपक तेल की सहायता से प्रकाश फैलाते हैं, पर आप बिना किसी सहायता के ही प्रकाश-ज्ञान फैलाते हैं । अन्य दीपक हवा से नष्ट हो जाते हैं, पर आप अविनाशी हैं 1 तथा अन्य दीपक थोड़ी-सी जगह को प्रकाशित करते हैं, पर आप समस्त लोक को प्रकाशित करते हैं ।।१६।।