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________________ १६ : पंचस्तोत्र ते तव भगवतो मनः । मनागपि किंचिदपि । विकारमार्ग न नीतं प्रापितं । तर्हि अत्र किं चित्रं किमाश्चर्य ? त्रिदशानां देवानामंगनास्त्रिदशांगनास्ताभिः । कुतः कारणात् ? कल्पान्तकालमरुता प्रलयकालत्रायुना किं मन्दराद्रिशिखरं मेरुशृङ्गं । कदाचित् चलितं कंपितं । अपि तु न कंपित्तमित्यर्थः । कल्पान्तकालस्य मरुत कल्पान्तकालमरुतेन । मन्दराद्रेः शिखरं मन्दराद्रिशिखरं । कथंभूतेन कल्पान्तकालमरुता ? चलिता विधूता अचलाः पर्वता येन स तेन ।। १५ ।। अन्वयार्थ – (यदि ) यदि (ते) आपका ( मन ) मन (त्रिदशाङ्गनाभि: ) देवाङ्गनाओं के द्वारा ( मनाक् अपि ) थोड़े भी ( विकारमार्गम् ) विकारभावको ( न नीतम् ) प्राप्त नहीं कराया जा सका है, (तर्हि ) तो ( अत्र ) इस विषय में (चित्रम् किम् ) आश्चर्य ही क्या है ? ( चलिताचलेन ) पहाड़ों को हिला देने वाली ( कल्पांतकालमरुता ) प्रलयकालकी पवन के द्वारा (किम् ) क्या (कदाचित् ) कभी ( मन्दराद्रिशिखरं ) मेरुपर्वतका शिखर (चलितम् ) हिलाया गया है ? अर्थात् नहीं । भावार्थ -- हे नाथ ! जिस तरह प्रलयकालको प्रचण्ड पवन के द्वारा मेरु पर्वत नहीं हिलाया जा सकता, उसी तरह देवाङ्गनाओं के हाव-भावों के द्वारा आपका मन सुमेरु भी नहीं हिलाया जा सकता । आपका धैर्य अतुल है और आपने मनको अपने वश में कर लिया हैं ।। १५ ।। निर्धूमवर्तिरपवर्जिततैलपूर: कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि । गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाशः ।। १६ ।। बत्ती नहीं नहिं धुवाँ नहिं तैलपूर, भारी हवा तक नहीं सकती बुझा है । सारे त्रिलोक बिच है करता उजेला, उत्कृष्ट दीपक विभो धुतिकारि तू है ।। १६ ।।
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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