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भक्तामर स्तोत्र १५
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टीका - भो परमेश्वर ! तव परमेश्वरस्य गुणास्त्रिभुवनं लंघयन्ति । ये गुणा एकं त्रिजगदीश्वरनाथमिन्द्रधरणेन्द्र चक्रवर्तिस्वामिनं । संश्रिताः आश्रिताः । कः पुमान् तान् गुणान् यथेष्टं संचरतो निवारयति निवारयितुं शक्तो भवति । त्रयाणां जगतामीश्वरास्तेषां नाथस्तं । कथंभूता गुणाः । सम्पूर्ण मण्डलं यस्य स एवंविधश्चासौ शशांकश्च सम्पूर्णमण्डलशशांकस्तस्य कलास्तासां कलापः समूहस्तद्वत् शुभ्रा उज्ज्वला इत्यर्थः । । १४11 अन्वयार्थ - ( सम्पूर्णमण्डलशशाङ्ककलाकलाप शुभ्रा ) पूर्णचन्द्र - बिम्बकी कलाओं के समूह के समान स्वच्छ ( तब ) आपके (गुणा ) गुण (त्रिभुवनम् ) तीन लोकों को (लंघयन्ति ) लाँघ रहे हैं - सब जगह फैले हुए हैं सो ठीक ही है, क्योंकि ( ये ) जो (एकम् ) मुख्य (त्रिजगदीश्वरनाथम् ) तीनों लोकों के नाथों के नाथ के ( संश्रिता: ) आश्रित हैं ( तान् ) उन्हें ( यथेष्टम् ) इच्छानुसार (सञ्चरतः सतः' ) घूमते हुए ( कः ) कौन ( निवारयति ) रोकता है ? कोई नहीं ।
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भावार्थ - हे भगवन्! जिस प्रकार किसी राजाधिराज के आश्रित रहने वाले पुरुष को इच्छानुसार जहाँ-तहाँ घूमते रहते कोई रोक नहीं सकता, उसी प्रकार आपके आश्रित रहने वाले कीर्ति आदि गुणों को तीनों लोकों में कोई नहीं रोक सकता । आपके गुण सब जगह फैले हुए हैं ।। १४ । ।
चित्र किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभिनतं मनागपि मनो न विकारमार्गम् । चलिताचलेन
कल्पान्तकालमरुता
किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ।। १५ ।। देवाङ्गना हर सक मनको न तेरे,
आश्चर्य नाथ ! उसमें कुछ भी नहीं है ।
कल्यान्त के पवनसे उड़ते पहाड़.
पैं मन्दराद्रि हिलता तक है कभी क्या ? ।। १५ ।। टीका - भो परमेश्वर । यदि चेत् । त्रिदशांगनाभिर्देवाप्सरोभिः ।