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१४ : पंचस्तोत्र
टीका– भो नाथ ! द्वौ क्व शब्दो महदन्तरं सूचयतः । ते तव परमेश्वरस्य वक्त्रं क्व ? इदं प्रसिद्ध निशाकरस्य चन्द्रबिम्ब क्व ? कथंभूतं वक्त्रं ? सुराश्च नराश्चोरगाश्च सुरनरोरगास्तेषां नेत्राणि हरतीति सुरनरोरगनेत्रहारि । पुनः निःशेषाणि समग्राणि निजितानि जगतां त्रितयस्य उपमानानि येन तत् । कथंभूतं चन्द्रबिम्बं । कलंकेन मलिनं यच्चंद्रबिम्बं । वासरे दिवसे । पाण्डुपलाशकल्पं भवति । पलाशस्य पत्रं पलाशं । पाण्डु च तत्पलाशं च पाण्डुपलाशं पाण्डुपलाशादिषन्नूनं पाण्डुपलाशकल्पम् ।।१३।। ___ अन्वयार्थ (सुरनरोरगनेत्रहारि) देव, मनुष्य, तथा धरणेन्द्र के नेत्रोंको हरण करनेवाला एवं ( निःशेषनिर्जितजगत्रितयोपमानम् ) सम्पूर्ण रूपसे जीत लिया है तीनों जगत्की उपपाओं को जिसने ऐसा (ते बना आपका गुल (स) कहाँ ? और (कलंकमलिनम् ) कलंक से मलीन ( निशाकरस्य ) चन्द्रमा का ('तद्' बिम्बम् ) वह मण्डल ( क्व ) कहाँ ? ( यत् ) जो ( वासरे ) दिनमें ( पलाशकल्पम् ) ढाक के पत्ते की तरह ( पाण्डु) फीका (भवति ) हो जाता है ।।१३।।
भावार्थ --नाथ ! जो लोग आपके मुख को चन्द्रमा की उपमा देते हैं, वे गलती करते हैं । क्योंकि आपके मुख की शोभा कभी नष्ट नहीं होती और चन्द्रमा की शोभा दिनमें नष्ट हो जाती है, इसके अतिरिक्त वह कलंकी है, और आपका मुख कलंक रहित है ।।१३।। सम्पूर्णमण्डलशशाङ्ककलाकलाप
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लङ्घयन्ति । ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वरनाथमेक
कस्तानिवारयति सञ्चरतो यथेष्टम् ।।१४।। अत्यन्त सुन्दर कलानिधिकी कलासे,
तेरे मनोज्ञ गुणनाथ फिरें जगों में। है आसरा त्रिजगदीश्वरका जिन्होंको,
रोके उन्हें त्रिजग में फिरते न कोई ।।१४।।