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भक्तामर स्तोत्र : १३ टीका– भो त्रिभुवनैकललामभूत ! यैः शांतरागरुचिभिः परमाणुभिः कृत्वा । त्वं भवान् । निर्मापित उत्पादितः । खलु निश्चितं । तेप्यणवः पृथिव्यां तावन्त एव विद्यन्ते । कुतो हेतोः? यद्यस्मात्कारणात् ते तव । समानं सदृशं । परं रूपं न ह्यस्ति । शान्ता उपशमं प्राप्ता रागाणां इति रागद्वेषादीनां रुचय इच्छा येषान्ते तैः । त्रिभुवनस्य मध्ये योऽद्वितीयः ललामभूतो रत्नसमातत्रिभुवनैकललामभूतस्तस्यामंत्रणे ।।१२।। __ अन्वयार्थ (त्रिभुवनैकललामभूत ! ) हे त्रिभुवनके एक आभूषण ! (त्वम् ) आप ( यैः ) जिन ( शान्तरागरुचिभिः ) शान्त हो गई है रागादि दोषोंको इच्छा जिनकी ऐसे (परमाणुभिः) परमाणुओंके द्वारा ( निर्मापितः ) रचे गये हैं ( खलु) निश्चय से (पृथिव्याम् ) पृथिवी पर ( ते अणवः अपि ) वे अणु भी ( तावन्तः एवं बभूवुः') उतने ही थे ( यत् ) क्योंकि (ते समानम् ) आपके समान ( अपरम् ) दूसरा ( रूपम् ) रूप ( नहि ) नहीं ( अस्ति ) है ।।१२।।
भावार्थ-हे जिनेन्द्र ! जिन परमाणुओंसे आपके शरीर की रचना हुई है, मालूम होता है कि वे परमाणु उतने ही थे । यदि उससे अधिक होते तो आपके समान दूसरा रूप भी होना चाहिए था, पर दूसरा रूप है नहीं, इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि वे उतने ही थे । भगवन् ! आप अद्वितीय सुन्दर हैं । । १२ । वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि
नि:शेषनिर्जितजगत्त्रितयोपमानम् । बिंबं कलङ्कमलिनं क्व निशाकरस्य
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् ।।१३।। तेरा कहाँ मुख, सुरादिक नेत्ररम्य,
सर्वोपमान विजयी जगदीश, नाथ ! त्यों ही कलंकित कहाँ वह चन्द्रबिम्ब !
जो हो पड़े दिवसमें द्युतिहीन फीका ।।१३।।