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१२ : पंचस्तोत्र
टीका–भो नाथ ! जनस्य सम्यक्त्वधारिणो लोकस्य । चक्षुर्नेत्रं । भवन्तं भगवन्तं । दृष्ट्वान्यत्र हरिहरादिषु देवेषु । तोषं प्रमोदं । न उपयाति न व्रजति । चक्षुरित्यर्थे जात्यपेक्षयैकवचनं । कथंभूतं भवन्तं ? अनिमेषेण विलोकनीयः अनिमेषविलोकनीयस्तं । कः पुमान् शशिकरद्युति दुग्धसिंधोः क्षीरसमुद्रस्य पयः पीत्वा, जलनिधेः क्षारसमुद्रस्य क्षारं जलं । रसितुमास्वादितुं । इच्छेत् वांछेत् ? अपि तु न कोऽपीत्यर्थः ।। ११ ।।
अन्वयार्थ (अनिमेषविलोकनीयम् ) बिना पलक झपाये एकटक देखने के योग्य ( भवन्तम्) आपको ( दृष्ट्वा ) देखकर (जनस्य) मों के (पः ) मेजया ) दूसरी जगह (तोषम्) सन्तोष को ( न उपयाति) प्राप्त नहीं होते । (दुग्धसिन्धोः) क्षीर समुद्र के ( शशिकरद्युति) चन्द्रमा के समान कान्ति वाले ( पयः ) पानी को ( पीत्वा ) पीकर (कः) कौन पुरुष (जलनिधेः) समुद्र के (क्षारम्) खारे ( जलम् ) पानी को (रसितुम् इच्छेत् ) स्वाद लेना चाहेगा ? अर्थात् कोई नहीं ।
भावार्थ हे भगवन् ! जिस तरह क्षीरसमुद्र के निर्मल जल को पीने वाला मनुष्य अन्य समुद्र के खारे पानी को पीने की इच्छा नहीं करता, उसी तरह आपके सुन्दर रूप को देखने वाले मनुष्य किसी दूसरे सुन्दर पदार्थ को नहीं देखना चाहते । आप सबसे अधिक सुन्दर हैं ।। ११ ।।
यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं
निर्मापितस्त्रिभुवनैकललामभूत । तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां
यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति ।।१२।। जो शान्ति के सुपरमाणु प्रभो, तनूमें,
तेरे लगे जगतमें उतने वही थे। सौन्दर्य-सार, जगदीश्वर चित्तहत्ता,
तेरे समान इससे नहिं रूप कोई ।। १२ ।