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________________ भक्तामर स्तोत्र : ११ टीका-~-हे भुवनभूषण ! हे मूलनाय ! औः सत्दै गैः । पृथिव्यां । भवन्तं परमेश्वरं । अभिष्टुवन्तः पुमांसः । भवतस्तव । तुल्या: समाना भवंति । न अत्यद्भुतं महाश्चर्यं न । भुवनानां भूषणं भुवनभूषणं तस्यामन्त्रणे । भूतानां प्राणिनां नाथ । अथवा भूतानां देवानां नाथ तस्य सम्बोधने । अभिसमन्तात् स्तुवंति इत्यभिष्टुवन्तः । वा अथवा । ननु निश्चितं । य: पुमान् । इह पृथिव्यामाश्रितं जनं । भूत्या स्वसमृद्ध्या । आत्मसमं न करोति स्वतुल्यं न विदधाति । तेन स्वामिना किं काय भवति ? अपि तु न भवतीत्यर्थः ।। १० ।। ___अन्वयार्थ ( भुवनभूषण ! ) हे संसार के भूषण ! ( भूतनाथ ! ) हे प्राणियों के स्वामी ! ( भूतैः ) सच्चे ( गुणः ) गुणों के द्वारा ( भवन्तम् अभिष्टवन्तः) आपकी स्तुति करने वाले पुरुष (भुवि) पृथिवी पर (भवतः) आपके (तुल्याः ) बराबर (भवन्ति ) हो जाते हैं, ('इदम्' अत्यद्भुतम् न) यह भारी आश्चर्य की बात नहीं है, (वा) अथवा (तेन) उस स्वामी से (किम् ) क्या प्रयोजन है ? ( यः ) जो (इह ) इस लोक में (आश्रितम्) अपने आधीन पुरुष को ( भूत्या) सम्पत्ति के द्वारा (आत्मसमम् ) अपने बराबर ( न करोति ) नहीं करता । भावार्थ-हे स्वामिन् ! जिस तरह उत्तम मालिक अपने सेवक को सम्पत्ति देकर अपने समान बना लेता है, उसी तरह आप भी अपने भक्त को अपने समान शुद्ध बना लेते हैं ।। १० ।। दृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीयं नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः । पीत्वा पयः शशिकरद्युतिदुग्धसिन्धोः क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ।।११।। जो शान्तिके सुपरमाणु प्रभो, तनूमें, तेरे लगे जगतमें उतने वही थे। सौन्दर्य-सार, जगदीश्वर चित्तहर्ता, तेरे समान इससे नहिं रूप कोई ।।११।।
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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