________________
१० : पंचस्तोत्र हन्ति स्फुटयति । तव सम्यग्भूता कथा त्वत्संकथा । कथंभूतं स्तवनं ? अस्ता निर्गताः समस्ता दोषा यस्य तत् । सहस्रकिरणः सहस्ररश्मि: दूर वर्तते तस्य । प्रभैव पद्माकरेषु सरसीषु । जलजानि कमलानि । विकासभांजि विकचानि कुरुते विदधातीत्यर्थः । विकासं भजन्ति तानि विकासभांजि । यस्य प्रभाया एतादृक् माहात्म्यं सर्वोत्कृष्टं तस्य सहस्रकिरणस्य का कथा । एवं यस्य कथायाः सकाशादेतादृक् माहात्म्यं तस्य स्तवनस्य का कथा? भगवतः स्तवनस्य माहात्म्यं सर्वोत्कृष्टम् इति भावः ।। ९ ।।
अन्वयार्थ ( अस्तसमस्तदोषम् ) सम्पूर्ण दोषों से रहित (तव स्तवनम्) आपका स्तवन ( आस्ताम् ) दूर रहे, किन्तु ( त्वसंकथा अपि) आपकी पवित्र कथा भी (जगताम् ) जगत् के जीवों के (दुरितानि ) पापों को ( हन्ति) नष्ट कर देती है। ( सहस्त्रकिरणः) सूर्य (दूरे 'अस्ति') दूर रहता है, पर उसकी (प्रभा एव ) प्रभा ही ( पद्माकरेषु ) तालाबों में (जलजानि) कमलों को ( विकासभाञ्जि) विकसित (कुरुते ) कर देती है ।
भावार्थ-प्रभो ! आपके निर्दोष स्तवन में तो अनन्त शक्ति है ही, पर आपकी पवित्र चर्चा में भी जीवों के पाप नष्ट करने की सामर्थ्य है । जैसे कि सूर्य के दूर रहने पर भी उसकी उज्ज्वल किरणों में कमलों को विकसित करने की सामर्थ्य रहती
नात्यद्भुतं भुवनभूषण ! भूतनाथ !
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः । तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ।।१०।। आश्चर्य क्या ? भुवनरत्न भले गुणों से,
तेरी किये स्तुति बने तुझसे मनुष्य । क्या काम है जगत में उन मालिकों का,
जो आत्मतुल्य न करे निज आश्रितों को ॥१०॥