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भक्तामर स्तोत्र : ९ तथापि तव प्रभावाद्भगवन्माहात्म्यात् । सतां सत्पुरुषाणां । चेतो हरिष्यति । ननु निश्चितं । उदबिन्दुर्जलकणः । नलिनीदलेषु कमलिनीपत्रेषु । मुक्ताफलस्य द्युतिं दीप्तिमुपैति प्राप्नोति । नलिनीनां दलानि नलिनीदलानि तेषु । मुक्ताफलस्य द्युतिर्मुक्ताफलद्युतिस्ताम् ॥ ८ ॥
अन्वयार्थ - ( नाथ ! ) हे स्वामिन्! ( इति मत्वा ) ऐसा मानकर ( मया तनुधिग अपि ) मुझ मन्दबुद्धि के द्वारा भी ( तब ) आपका (इदम्) यह ( संस्तवनम् ) स्तवन ( आरभ्यते ) प्रारम्भ किया जाता है। जो कि ( तव प्रभावात् ) आपके प्रभाव से ( सताम् ) सज्जनों के ( चेतः ) चित्त को ( हरिष्यति ) हरेगा । ( ननु ) निश्चय से ( उदबिन्दुः ) पानी की बूँद ( नलिनीदलेषु ) कमलिनी के पत्तों पर ( मुक्ताफलद्युतिम् ) मोती जैसी कान्ति को ( उपैति ) प्राप्त होती हैं ।
भावार्थ - हे नाथ ! जिस तरह कमलिनी के पत्र पर पड़ी हुई पानी की बूँदें मोती की तरह सुन्दर दिखकर लोगों के चित्त को हरती हैं, उसी तरह मुझ अल्पज्ञ के द्वारा हुई स्तुति भी आपके प्रभाव से सज्जनों के चित्त को हरेगी ।। ८ ।।
स्तवनमस्तसमस्तदोषं
आस्तां तब
त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति । दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभव पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ।। ९ ।। दुर्दोष दूर तव हो स्तुतिका बनाना,
तेरी कथा तक हरे जगके अघों को ।
हो दूर सूर्य, करती उसकी प्रभा ही,
अच्छे प्रफुल्लित सरोजनको सरों में ।। ९ ।। टीका ---- भो नाथ ! तव परमेश्वरस्य । स्तवनं दूरे आस्तां तिष्ठतु । त्वत्संकथाऽपि भागवती वार्ताऽपि । जगतां लोकानां । दुरितानि पापानि ।
१. सहस्रकिरणपक्षे लिङ्गं परिवर्त्य 'अस्तसमस्तदोषम् इत्यस्य अस्ता समस्ता दोषा रात्रिर्थेन तत्राभूत इत्यर्थो बोध्यः ।