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८ : पंचस्तोत्र ध्वंसं । उपैति प्राप्नोति । भवानां सन्ततिः श्रेणिस्तया सन्निबद्धं । स्वस्य स्तवनमाहात्म्यं दृष्टान्तेन दृढयति । किमिव शावरमन्धकारमिव । यथा शार्वरं रात्रिसम्बन्धि अन्धकारं । सूर्याशुभिभिन्नं । तत्तु आशु शीघ्रं अशेष समनं क्षयं याति । कथंभूतमन्धकारं । आक्रान्ता पीडिता लोका येन तत् । पुनरलयो भ्रमरास्तद्वन्नील : ||
अन्वयार्थ--( त्वत्संस्तवेन ) आपकी स्तुति से (शरीरभाजाम् ) प्राणियों के ( भवसन्ततिसन्निषद्धम् ) अनेक भवों के बँधे हुए ( पापम् ) पापकर्म , ( आक्रान्तलोकम् ) सम्पूर्ण लोक में फैले हुए, ( अलिनीलम्) भौरों के समान काले ( सूर्यांशुभिन्नम् ) सूर्य की किरणों से खण्डित (शार्वरम्) रात्रि सम्बन्धी ( अशेषम् ) समस्त ( अन्धकारम् इव) अन्धकार की तरह (क्षणात्) क्षण भर में (आशु ) शीघ्र ही (क्षयम् ) विनाश को ( उपैति) प्राप्त हो जाते हैं ।। ७ ।। ___ भावार्थ--हे नाथ ! जिस तरह सूर्य की किरणों के द्वारा रात्रि का समस्त अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी तरह आपके स्तोत्र मे प्राणियों के जन्म-जन्म में एकत्रित हुए पाप नष्ट हो जाते हैं ।। ७ ।। मत्वेति नाथ ! तव संस्तवनं मयेद
मारभ्यते तनुधियाऽपि तव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु
मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः ।। ८ ।। यों मान की स्तुति शुरू मुझ अल्पधीने,
तेरे प्रभाव-वश नाथ वही हरेगी। सल्लोक के हृदय की जल-बिन्दु भी तो.
मोती समान नलिनी-पलपै सुहाते ।।८।। टीका-मत्वेति मत्वा मनसेत्यवबुद्ध्य । इदं प्रसिद्धं । तव संस्तवनं प्रारभ्यते । कथंभूतेन मया तन्वी स्वल्पा धीर्बुद्धिर्यस्य स तेन ।