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________________ एकीभाव स्तोत्र : २२३ कथम्भूतः भवद्भारतीरत्नदीप ? तत्त्वैः सप्ततत्त्यैः अवभासतेऽसौ तत्त्वावभासी ।। १४ ।। अन्वयार्थ – (हे देव ! ) हे स्वामिन् ! ( खलु ) निश्चय से ( अयम् ) यह ( मुक्तेः ) मोक्षका ( पंधा:) मार्ग ( अधमयैः ) पापरूपी (अन्धकारै: ) अन्धकार के द्वारा ( समन्तात् ) सब ओर से (प्रच्छन्नः ) ठका हुआ है और ( अगाधैः ) गहरे ( क्लेशगर्ते: ) दुःखरूपी गड्ढों से ( स्थपुटितपदः ) विषम है -- दुष्प्रवेश है ऐसी अवस्था (यदि अदर (स्थावभासी) साई बतलाने वाला अथवा सप्ततत्त्वों के द्वारा मोक्षमार्गका निरूपण करने वाला ( भवद भारतीरत्नदीप: ) आपकी वाणीरूपी दीपक का प्रकाश (अग्रे अग्रे ) आगे-आगे ( न भवति ) न होता (तत्) तो (तेन ) उस मार्ग से (कः ) कौन मनुष्य ( सुखतः ) सुखपूर्वक ( व्रजति ) गमन कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं । भावार्थ हे देव ! मुक्ति का मार्ग मिध्यात्वरूप अज्ञान अंधकार से व्याप्त है, आच्छादित हैं । और अगाध दुःखरूप गड्ढों से विषम है, दुष्प्रवेश है। ऐसा होने पर भी यदि सप्ततत्त्वों के स्वरूप को प्रकाशित करने वाला अथवा सप्त तत्त्वों के द्वारा मोक्ष मार्गका निरूपण करने वाला आपकी पवित्र दिव्यध्वनिरूप वाणीरूपी दीपक का प्रकाश आगे-आगे नहीं होता, तो ऐसा कौन पुरुष है जो आपकी वाणीरूपी दीपक के प्रकाश के बिना ही उस कंटकाकीर्ण विषम मार्ग से सुखपूर्वक गमन कर सकता है ? और अपने इष्टस्थान को सुगमता से प्राप्त करने में समर्थ हो सकता है । अर्थात् कोई नहीं । अस्तु हे नाथ ! आपकी पवित्र वाणीरूपी दीपक के प्रकाश से ही संसारी जीव हेयोपादेयरूप तत्वोंका परिज्ञान करते हैं और उसी के अनुकूल आचरण कर कर्म बन्धन से छूटने का उपाय करते हैं । अर्थात् मोक्ष के साथ सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धारण करते हैं, उन्हें अपने जीवन में उतारते हैं। साथ ही, रत्नत्रय की पूर्णता एवं -
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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