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२२२ : पंच स्तोत्र
भावार्थ-विशुद्धज्ञान और निर्मल चारित्र के रहते हुए भी यदि जिनेन्द्र की भक्तिमय अथवा सम्यग्दर्शनरूप-कुञ्जी नहीं है तो फिर महा मिथ्यात्वरूप मुद्रा से अंकित मोक्षमन्दिर का द्वार कैसे खोला जा सकता है ? अर्थात् भक्तिरूपी कुंचिका के बिना मुक्तिद्वार का खुलना नितान्त कठिन है । परन्तु जिस भद्र मानव के पास जिनेन्द्र की भक्तिरूपी अथवा सम्यग्दर्शनरूपी कुंजी है वह बहुत जल्दी ही मुक्ति को प्राप्त कर सकता है, क्योंकि सम्यग्दर्शन मोक्षमहल की पहली सीढ़ी है । इसके बिना ज्ञान और चारित्र भी मिथ्या कहलाते हैं । अतः मुक्ति के इच्छुक पुरुषों को सबसे पहले सम्यग्दर्शन को प्राप्त करना ही श्रेयस्कर है ।। १३ ।। प्रच्छन्नः खल्वयमघमयैरंधकारैः समंता
त्पंथामुक्तेः स्थफुटितपदः क्लेशगतैरंगाधैः । तत्कस्तेन व्रजति सुखतो देवतत्त्वावभासी,
यद्यग्रेऽने न भवति भवद्भारती रत्नदीपः ।।१४।। शिवपुर केरो पंथ पापतमसों अति छायो । दुखसरूप बहू कूप खांडसों बिकट बतायो । स्वामी सुखसों तहाँ कौन जन मारग लागें । प्रभु-प्रवचन मणि दीप जोतके आगें आरौं 11 १४ ।।
टीका-भो देव ! खलु निश्चितं अयं मुक्तेः पंथाः सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र-लक्षणो मोक्षमार्गः अघमौरंधकारैः मिथ्यात्वलक्षणैः स्तिमिरैः समंतात् सर्वतः प्रच्छन्नः आच्छादितः । पुनः मुक्तेः पथा अगाधेः अतुलस्पशैं: क्लेशगतैनरकादि दुःखैः कृत्वा स्थपुटितपदः विद्यते । स्थपुटितानि उच्चनीचानि पदानि पादरोप्रणस्थानानि यस्मिन् सः । तत्तस्मात् कारणात् तेन दुरुत्तरेणमोक्षमार्गेण सुखतः सुखेनैव कः पुमान् ब्रजति यातीतिभावः । कुतः यदि चेत् भवद्भारती रत्नदीप: तव दिव्यभाषा: अप्रतिहतरल प्रभादीपः अग्रे अग्रे न भवति । भवतो जिनेन्द्रस्य भारती भवद्भारती सेव रत्नदीपः भवद्भारतीरत्नदीपः ।